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Sunday 19 February 2012

मधुर स्मर्तिया


भर आयी ये आँखे ,
जब कहा उन्होंने , चलते हैं ,
यकबायक ठहर गया ,
वक्त , जब कहा उन्होंने ,
चलते हैं ,
रुंधे गले से बस इतना ,
कह पाए ,
जाओ पर तुम अपनी ,
मधुर स्म्रतियों को ,
हमारे अन्तःस्थल से कैसे ,
ले जा पाओगे ,
हाँ स्मर्तिया , जिन पर ,
अब तुम्हारा कोई ,
अधिकार नहीं ,
वह सब हमारी निधियां है ,
जिन्हें संजोये रखेंगे ,
हम अपने ह्रदय में ,
इसलिए कि कभी वे तुम्हारी थी ,
जाओ ले जाओ ,
हमारी हृदयस्पर्शी भावनाएं ,
जिनमें सिर्फ शुभकामनाओं ,
कि विशाल आकांक्षाएं है ,
तुम्हारे लिए .

विनोद भगत

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