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बदल गए है संबंधों के अर्थ , अर्थ के लिए बन रहे है सम्बन्ध , व्यर्थ हो गए सभी सम्बन्ध , अर्थ है तो सम्बन्ध भी है , अर्थ का यह कैसा हु...
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मैं छूना चाहता हूँ , तुम्हें , कुछ इस तरह कि, छूने का अहसास , भी होने पायें तुम्हें , क्योंकि , तुम मेरी खामोश चाहत का , मंदिर...
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मैं नया नया इस शहर में आया था। पहली पोस्टिंग थी। बड़ी मुश्किल से एक कमरा मिला। उसमें भी कई प्रतिबंध नौ बजे बाद नहीं आओगे, लाइट फालतू नहीं जल...
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नमस्कार , मै समाजसेवक , आपकी सेवा के लिए सदा तत्पर , कहिये , आपकी क्या समस्या है , अरे हाँ आराम से , मेरे चमचमाते मार्बल के फर्श से बचन...
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मै स्वप्न खरीदने निकला , एक दिन , स्वप्नों के बाज़ार में , बड़ी भीड़ थी , ठसाठस भरे थे खरीदार , रंगीले स्वप्न , रसीले स्वप...
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आओ समाज को बदलें , आओ लोगो को बदलें , आओ सदाचार सिखाएं , आओ उपदेश दें , आओ सत्य का प्रचार करें , आओ दुनिया को नैतिकता का...
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ज़मीन नफ़रत की , और खाद मिलायी दंगों की , वोट की फसल पाने के लिए , हकीकत यही है सियासत में घुस आये नंगों की , सत्ता मिलते ही एकदम , ...
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पेट में उनके आग होती है , जिनके चूल्हे बुझे होते हैं , बुझे चूल्हे की आग पेट से , जब बाहर निकलती है , तब विकराल हो जाती है , चूल्हे...
Monday 19 August 2013
Wednesday 7 August 2013
आओ सृजन करें...............
आओ सृजन करें फिर से इस धरा पर मनोहर धाम का ,
सार्थक करें जन्म लेने का लक्ष्य जीवन है इसी काम का ,
उन्मुक्त गगन से सीख लें उच्च विचारों की उड़ान का ,
आओ लौट आयें अब भूला हुआ बनकर किसी शाम का ,
मर्यादा का करना है प्रतिस्थापन फिर से इस जगत में ,
सीख तो रावण से भी लें पर आदर्श अपनाएँ राम का ,
झूठ के महल खड़े बहुत कर लिए दुःख ही दुःख पाया
सतपथ का कठिन,पर अंत होगा सुखद परिणाम का ,
शताब्दियों के आदर्श एक पल में हो जाया करते हैं ख़ाक ,
बहुत कुछ अब करना होगा समय नहीं यह विश्राम का
आओ सृजन करें फिर से इस ध्ररा पर मनोहर धाम का ,
सार्थक करें जन्म लेने का लक्ष्य जीवन है इसी काम का ,
विनोद भगत
सार्थक करें जन्म लेने का लक्ष्य जीवन है इसी काम का ,
उन्मुक्त गगन से सीख लें उच्च विचारों की उड़ान का ,
आओ लौट आयें अब भूला हुआ बनकर किसी शाम का ,
मर्यादा का करना है प्रतिस्थापन फिर से इस जगत में ,
सीख तो रावण से भी लें पर आदर्श अपनाएँ राम का ,
झूठ के महल खड़े बहुत कर लिए दुःख ही दुःख पाया
सतपथ का कठिन,पर अंत होगा सुखद परिणाम का ,
शताब्दियों के आदर्श एक पल में हो जाया करते हैं ख़ाक ,
बहुत कुछ अब करना होगा समय नहीं यह विश्राम का
आओ सृजन करें फिर से इस ध्ररा पर मनोहर धाम का ,
सार्थक करें जन्म लेने का लक्ष्य जीवन है इसी काम का ,
विनोद भगत
Sunday 21 July 2013
हिमालय की पुकार
सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,
क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो ,
प्रगति के नाम पर कब तक होगी नादानी ,
रोकना है विनाश , और प्रलय घमासान ,
प्रकृति की रक्षा करने वालो के विचार चुनो ,
सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,
क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो ,
जंगल काटते रहे और पानी को रोकते रहे ,
कितना वैभव और सुख देती वसुंधरा हमको ,
जागो रे जागो कृतघ्नों सा मत व्यवहार करो ,
सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,
क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो
विनोद भगत
क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो ,
प्रगति के नाम पर कब तक होगी नादानी ,
रोकना है विनाश , और प्रलय घमासान ,
प्रकृति की रक्षा करने वालो के विचार चुनो ,
सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,
क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो ,
जंगल काटते रहे और पानी को रोकते रहे ,
कितना वैभव और सुख देती वसुंधरा हमको ,
जागो रे जागो कृतघ्नों सा मत व्यवहार करो ,
सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,
क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो
विनोद भगत
भक्ति का मार्ग
तुम मेरे पास श्रद्धा से आते ,
मैं श्रद्धा और भक्ति का भूखा हूँ ,
पर तुम तो अपना वैभव दिखाने आने लगे ,
तुम ही तो कहते हो , मैं सबको देता हूँ ,
मैं सर्वशक्तिमान हूँ , मुझमें समूचा जग समाया है ,
पर तुम तो मुझे ही दिखाने लगे अपनी तुच्छ शक्ति ,
धन धान्य मुझसे पाकर मुझे ही देने लगे ,
भूल गए मैंने तुम्हें इस योग्य बनाया ,
हाँ , मैंने बनाया इसलिए कोई दीन ना रहे ,
एक भी दीन जब तक है ,
मैं कैसे प्रसन्न रह सकता हूँ ,
बुद्धिमान कैसे कहूँ तुम्हें ,
तुम समझ नहीं पाए मुझे ,
नहीं जान पाए मेरा मंतव्य ,
मुझे प्रसन्न करने की झूठी कोशिश करते रहे ,
मैं संहारक भी हूँ ,
सृष्टि का सृजन भी मैंने ही किया है ,
पर , तुम समझ बैठे स्वयं को निर्माता ,
सच में तुम कितने मूर्ख बुद्धिमान हो ,
मुझे नहीं चाहिये तुम्हारा धन ,
मेरी बनाई सृष्टि के निर्माण से प्रेम करो ,
सच कहूँ यही है मेरी भक्ति का मार्ग ,
विनोद भगत
मैं श्रद्धा और भक्ति का भूखा हूँ ,
पर तुम तो अपना वैभव दिखाने आने लगे ,
तुम ही तो कहते हो , मैं सबको देता हूँ ,
मैं सर्वशक्तिमान हूँ , मुझमें समूचा जग समाया है ,
पर तुम तो मुझे ही दिखाने लगे अपनी तुच्छ शक्ति ,
धन धान्य मुझसे पाकर मुझे ही देने लगे ,
भूल गए मैंने तुम्हें इस योग्य बनाया ,
हाँ , मैंने बनाया इसलिए कोई दीन ना रहे ,
एक भी दीन जब तक है ,
मैं कैसे प्रसन्न रह सकता हूँ ,
बुद्धिमान कैसे कहूँ तुम्हें ,
तुम समझ नहीं पाए मुझे ,
नहीं जान पाए मेरा मंतव्य ,
मुझे प्रसन्न करने की झूठी कोशिश करते रहे ,
मैं संहारक भी हूँ ,
सृष्टि का सृजन भी मैंने ही किया है ,
पर , तुम समझ बैठे स्वयं को निर्माता ,
सच में तुम कितने मूर्ख बुद्धिमान हो ,
मुझे नहीं चाहिये तुम्हारा धन ,
मेरी बनाई सृष्टि के निर्माण से प्रेम करो ,
सच कहूँ यही है मेरी भक्ति का मार्ग ,
विनोद भगत
Saturday 13 July 2013
आग सीने मे--------
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आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
आओ जला दें अब अन्याय के महल ,
खामोशी को विरोध की मशाल बनाएं ,
खुद ही मसीहा बन करनी होगी पहल,
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
उनके ज़ुल्मों की अब हो गयी इन्तहां ,
सुनो शास्त्र नहीं अब शस्त्र उठाने होंगे ,
ईमान की आंधी से सीने जाएँ दहल
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
खून के आंसू रुलाने वालोँ ख़बरदार ,,
हमारी शांति लाएगी एक दिन तूफ़ान ,
हर ज़ुल्म का हिसाब लेंगे पल पल ,
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
विनोद भगत
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
आओ जला दें अब अन्याय के महल ,
खामोशी को विरोध की मशाल बनाएं ,
खुद ही मसीहा बन करनी होगी पहल,
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
उनके ज़ुल्मों की अब हो गयी इन्तहां ,
सुनो शास्त्र नहीं अब शस्त्र उठाने होंगे ,
ईमान की आंधी से सीने जाएँ दहल
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
खून के आंसू रुलाने वालोँ ख़बरदार ,,
हमारी शांति लाएगी एक दिन तूफ़ान ,
हर ज़ुल्म का हिसाब लेंगे पल पल ,
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
विनोद भगत
अपने आप उजड़ रहे हैं
रिश्तो की ठोस बर्फ अब कहाँ ,
संबंधों के ग्लेशियर पिघल रहे हैं ,
लिहाजों की नहीं कोई जगह अब ,
वर्जनाओं के पर्वत उधड रहे हैं ,
देवी मानते हैं कितना नारी को अब ,
अखबारों में रोज़ ही पढ़ रहे हैं ,
आदर्शों की रोज़ होली जलाते अब ,
वीभत्स कहानियां ही गढ़ रहे हैं ,
भावनाओं की लगातार होती ह्त्या ,
प्रगति के कैसे सोपान चढ़ रहे हैं,
दोष हमारा ही है अपराधी भी हम ,
अपना कसूर किसके माथे मढ़ रहे हैं ,
किसी ने नहीं किया यह कब सोचेंगे ,
हां खुद ही अपने आप उजड़ रहे हैं ,
विनोद भगत ,
संबंधों के ग्लेशियर पिघल रहे हैं ,
लिहाजों की नहीं कोई जगह अब ,
वर्जनाओं के पर्वत उधड रहे हैं ,
देवी मानते हैं कितना नारी को अब ,
अखबारों में रोज़ ही पढ़ रहे हैं ,
आदर्शों की रोज़ होली जलाते अब ,
वीभत्स कहानियां ही गढ़ रहे हैं ,
भावनाओं की लगातार होती ह्त्या ,
प्रगति के कैसे सोपान चढ़ रहे हैं,
दोष हमारा ही है अपराधी भी हम ,
अपना कसूर किसके माथे मढ़ रहे हैं ,
किसी ने नहीं किया यह कब सोचेंगे ,
हां खुद ही अपने आप उजड़ रहे हैं ,
विनोद भगत ,
तस्वीर बदल जाये
सभी तो धार्मिक हैं यहाँ ,
या दावा करते हैं धार्मिक होने का ,
फिर भी पाप बढ़ रहा है ,
अत्याचार बढ़ रहा है ,
और मै ढूढ़ रहा हूँ धर्म ऐसा ,
जिसमें पाप और अत्याचार ,
अनाचार का समर्थन हो ,
लोग झूठ बोलते हैं ,
किसी भी धर्म में नहीं है ,
पाप अनाचार का समर्थन ,
या मुझे नहीं मिल पाया वह धर्म ,
नहीं पढ़ पाया उस धर्म के सिद्धांत ,
हर धर्म में नीति की ही बात है ,
पर कोई नहीं मानता नीति की बातें ,
पता नहीं धर्म की बातों के विपरीत ,
क्यों जाते हैं सब ,
किसी धर्म की किताब ऐसी भी होनी चाहिए ,
जिसमें अनीति की बातें हों ,
सबको वही पढनी चाहियॆ ,
किताब में पढ़ी बातों पर अमल कौन करता है ,
तब शायद तस्वीर बदल जाये
विनोद भगत
या दावा करते हैं धार्मिक होने का ,
फिर भी पाप बढ़ रहा है ,
अत्याचार बढ़ रहा है ,
और मै ढूढ़ रहा हूँ धर्म ऐसा ,
जिसमें पाप और अत्याचार ,
अनाचार का समर्थन हो ,
लोग झूठ बोलते हैं ,
किसी भी धर्म में नहीं है ,
पाप अनाचार का समर्थन ,
या मुझे नहीं मिल पाया वह धर्म ,
नहीं पढ़ पाया उस धर्म के सिद्धांत ,
हर धर्म में नीति की ही बात है ,
पर कोई नहीं मानता नीति की बातें ,
पता नहीं धर्म की बातों के विपरीत ,
क्यों जाते हैं सब ,
किसी धर्म की किताब ऐसी भी होनी चाहिए ,
जिसमें अनीति की बातें हों ,
सबको वही पढनी चाहियॆ ,
किताब में पढ़ी बातों पर अमल कौन करता है ,
तब शायद तस्वीर बदल जाये
विनोद भगत
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