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बदल गए है संबंधों के अर्थ , अर्थ के लिए बन रहे है सम्बन्ध , व्यर्थ हो गए सभी सम्बन्ध , अर्थ है तो सम्बन्ध भी है , अर्थ का यह कैसा हु...
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मैं छूना चाहता हूँ , तुम्हें , कुछ इस तरह कि, छूने का अहसास , भी होने पायें तुम्हें , क्योंकि , तुम मेरी खामोश चाहत का , मंदिर...
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मैं नया नया इस शहर में आया था। पहली पोस्टिंग थी। बड़ी मुश्किल से एक कमरा मिला। उसमें भी कई प्रतिबंध नौ बजे बाद नहीं आओगे, लाइट फालतू नहीं जल...
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नमस्कार , मै समाजसेवक , आपकी सेवा के लिए सदा तत्पर , कहिये , आपकी क्या समस्या है , अरे हाँ आराम से , मेरे चमचमाते मार्बल के फर्श से बचन...
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आओ समाज को बदलें , आओ लोगो को बदलें , आओ सदाचार सिखाएं , आओ उपदेश दें , आओ सत्य का प्रचार करें , आओ दुनिया को नैतिकता का...
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ज़मीन नफ़रत की , और खाद मिलायी दंगों की , वोट की फसल पाने के लिए , हकीकत यही है सियासत में घुस आये नंगों की , सत्ता मिलते ही एकदम , ...
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पेट में उनके आग होती है , जिनके चूल्हे बुझे होते हैं , बुझे चूल्हे की आग पेट से , जब बाहर निकलती है , तब विकराल हो जाती है , चूल्हे...
Wednesday 24 October 2012
बदल रहा है ज़माना
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
रिश्तों की बदली बदली परिभाषा,
बुन रहे अब नफ़रत का ताना बाना ,
"रिश्तों की बदली बदली परिभाषा,
बुन रहे अब नफ़रत का ताना बाना ,
तोड़ दिए हैं अब प्रेम के सभी साज़ ,
कैसे गायें अब मधुरता का तराना ,
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
अपने ही दे रहे चोट दर चोट ,
किसे कहें अपना , कौन है बेगाना ,
रस्मो रिवाज़ भूल कर सभी ग़ुम हो गए ,
नयी हो गयी राहें भी, यह हमने जाना ,
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
कोई किसी के लिए नहीं रोता ,
अब कोई किसी का नहीं बनता ,
आसान है हाथ छोड़कर बीच राह में ,
और कितना मुश्किल है साथ निभाना
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
copyright@विनोद भगत
कैसे गायें अब मधुरता का तराना ,
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
अपने ही दे रहे चोट दर चोट ,
किसे कहें अपना , कौन है बेगाना ,
रस्मो रिवाज़ भूल कर सभी ग़ुम हो गए ,
नयी हो गयी राहें भी, यह हमने जाना ,
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
कोई किसी के लिए नहीं रोता ,
अब कोई किसी का नहीं बनता ,
आसान है हाथ छोड़कर बीच राह में ,
और कितना मुश्किल है साथ निभाना
बदल रहा है ज़माना , यह हमने माना ,
copyright@विनोद भगत
" आरक्षण आरक्षण
आओ, मैं तुम्हें खाउंगा ,
मैं आरक्षण हूँ ,
रक्षण नहीं, भक्षण करता हूँ ,
मैं आरक्षण हूँ ,
रक्षण नहीं, भक्षण करता हूँ ,
सपनो का , अरमानों का ,
देखो मेरा दम ,
योग्य जो है उसे अयोग्य बना देता हूँ ,
अयोग्य को प्रश्रय देता हूँ ,
तुम असहाय हो ,
एक पल में बता देता हूँ ,
मुझे सरंक्षण है ,
वोट के सौदागरों का ,
मै जानता हूँ ,
तुम नहीं कर सकते कुछ भी ,
मैं अट्टहास कर रहा हूँ ,
मुझे सींच रहे हैं तुम्हारे नीति नियंता ,
दरअसल सवर्ण होना अभिशाप बन गया है ,
तुम्हारे लिए ,
तुम सवर्ण हो ,
इसलिए शर्म आनी चाहिए तुम्हें ,
सवर्ण कहीं के ,
गाली बन गया है ,
अब सवर्ण शब्द ,
हाँ, तुम सवर्ण हो , सवर्ण हो ........
देखो मेरा दम ,
योग्य जो है उसे अयोग्य बना देता हूँ ,
अयोग्य को प्रश्रय देता हूँ ,
तुम असहाय हो ,
एक पल में बता देता हूँ ,
मुझे सरंक्षण है ,
वोट के सौदागरों का ,
मै जानता हूँ ,
तुम नहीं कर सकते कुछ भी ,
मैं अट्टहास कर रहा हूँ ,
मुझे सींच रहे हैं तुम्हारे नीति नियंता ,
दरअसल सवर्ण होना अभिशाप बन गया है ,
तुम्हारे लिए ,
तुम सवर्ण हो ,
इसलिए शर्म आनी चाहिए तुम्हें ,
सवर्ण कहीं के ,
गाली बन गया है ,
अब सवर्ण शब्द ,
हाँ, तुम सवर्ण हो , सवर्ण हो ........
कापीराईट @विनोद भगत
"
.
प्यार नफ़रत
इस भागती ज़िन्दगी में प्यार के लिए फुरसत नहीं मिलती,
ना जाने फिर भी लोग नफ़रत का वक़्त कैसे निकाल लेते हैं ,
ना जाने फिर भी लोग नफ़रत का वक़्त कैसे निकाल लेते हैं ,
नहीं मुक्कम्मल जिंदगी जीने का जिनके पास सलीका ,
वोह , कितनी आसानी से मौत का सामान निकाल लेते हैं ,
खुद को आईने मे देखकर खुद ही खुद पर इतराते रहते है
बिना देखे दूसरों में ना जाने कैसे नुख्स निकाल लेते हैं
वफ़ा करना जिनकी फितरत में नहीं कभी दोस्तों ,
यारों को अपने कैसे बेवफा कह दिल से निकाल लेते हैं ,
कापीराईट @विनोद भगत
वोह , कितनी आसानी से मौत का सामान निकाल लेते हैं ,
खुद को आईने मे देखकर खुद ही खुद पर इतराते रहते है
बिना देखे दूसरों में ना जाने कैसे नुख्स निकाल लेते हैं
वफ़ा करना जिनकी फितरत में नहीं कभी दोस्तों ,
यारों को अपने कैसे बेवफा कह दिल से निकाल लेते हैं ,
कापीराईट @विनोद भगत
पैसा नहीं आत्मीयता
सुनो भाई ,
कोई तो सुनो ,
मै भी पैसे वाला बनूंगा ,
"कोई तो सुनो ,
मै भी पैसे वाला बनूंगा ,
और जब मै पैसे वाला ,
बहुत सारे पैसे वाला बन जाउंगा ,
तब भी, मुझे तुम ऐसे ही स्नेह दोगे ,
अरे , स्नेह के बदले पैसा दूंगा ,
तुम मेरी वाह वाह करना ,
उसके भी पैसे दूंगा ,
मै पैसे से सम्मान खरीदूंगा ,
मै पैसे के लिए कहीं तक भी गिर जाउंगा ,
पर तुम तो फिर भी मेरा सम्मान ही करोगे ,
आंखिर मै पैसे वाला हूँ ,
पैसे के बदले मुझे तुम अपनी आत्मीयता भी दोगे ,
मै जानता हूँ , अच्छी तरह जानता हूँ ,
मै तुम्हारी आत्मीयता नहीं खरीद पाउँगा ,
पैसा मुझे तुम्हारी आत्मीयता से दूर कर देगा ,
सोच रहा हूँ , मै ऐसे ही ठीक हूँ ,
मुझे पैसे से ज्यादा आपकी आत्मीयता प्रिय है ,
हाँ सोच लिया ,
मै पैसे वाला नहीं,
केवल तुम्हारा मित्र बने रहना चाहूँगा ,
तुम मेरे मित्र हो ,
इससे बड़ा धन और क्या होगा
विनोद भगत
बहुत सारे पैसे वाला बन जाउंगा ,
तब भी, मुझे तुम ऐसे ही स्नेह दोगे ,
अरे , स्नेह के बदले पैसा दूंगा ,
तुम मेरी वाह वाह करना ,
उसके भी पैसे दूंगा ,
मै पैसे से सम्मान खरीदूंगा ,
मै पैसे के लिए कहीं तक भी गिर जाउंगा ,
पर तुम तो फिर भी मेरा सम्मान ही करोगे ,
आंखिर मै पैसे वाला हूँ ,
पैसे के बदले मुझे तुम अपनी आत्मीयता भी दोगे ,
मै जानता हूँ , अच्छी तरह जानता हूँ ,
मै तुम्हारी आत्मीयता नहीं खरीद पाउँगा ,
पैसा मुझे तुम्हारी आत्मीयता से दूर कर देगा ,
सोच रहा हूँ , मै ऐसे ही ठीक हूँ ,
मुझे पैसे से ज्यादा आपकी आत्मीयता प्रिय है ,
हाँ सोच लिया ,
मै पैसे वाला नहीं,
केवल तुम्हारा मित्र बने रहना चाहूँगा ,
तुम मेरे मित्र हो ,
इससे बड़ा धन और क्या होगा
विनोद भगत
दहलीजें,
दहलीजें,
अब नहीं होती घरो में ,
इसीलियें,
"अब नहीं होती घरो में ,
इसीलियें,
मर्यादाएं भी टूट रही हैं ,
दहलीज़ लांघने का,
एक मतलब होता था ,
अब दहलीज़ ही नहीं
तो मतलब भी ख़तम
दहलीजें जो संस्कृति का ,
वाहक थी ,
दहलीजों पर उकेरे ,
जाते आलेखन ,
घर की सांस्कृतिक ,
पहचान का परिचय होता था ,
दहलीज़ सीमा होती थी ,
अब सीमाओं से परे हो गए हैं हम ,
दहलीज़ को भुला दिया है ,,
बार लांघने के बजाय दहलीज़ को ,
हटा दिया ,
अब मर्यादाओं के टूटने का कोई डर नहीं
विनोद भगत
दहलीज़ लांघने का,
एक मतलब होता था ,
अब दहलीज़ ही नहीं
तो मतलब भी ख़तम
दहलीजें जो संस्कृति का ,
वाहक थी ,
दहलीजों पर उकेरे ,
जाते आलेखन ,
घर की सांस्कृतिक ,
पहचान का परिचय होता था ,
दहलीज़ सीमा होती थी ,
अब सीमाओं से परे हो गए हैं हम ,
दहलीज़ को भुला दिया है ,,
बार लांघने के बजाय दहलीज़ को ,
हटा दिया ,
अब मर्यादाओं के टूटने का कोई डर नहीं
विनोद भगत
प्रतिभा तो घर में ही रहेगी ,
भई वाह ,
क्या खूब लिखते हो ,
आम आदमी की पीड़ा पर कलम चलाते हो ,
पहनावे से तो तुम ऐसे ही लगते हो ,
क्या शानदार रचना लिखते हो ,
मेरी प्रशंसा से क्यों सकुचाते हो ,
तुम्हें लिखना चाहिए , लगातार लिखो,
क्या खूब लिखते हो ,
आम आदमी की पीड़ा पर कलम चलाते हो ,
पहनावे से तो तुम ऐसे ही लगते हो ,
क्या शानदार रचना लिखते हो ,
मेरी प्रशंसा से क्यों सकुचाते हो ,
तुम्हें लिखना चाहिए , लगातार लिखो,
प्रतिभा छुपी नहीं रहनी चाहिए ,
उसे बाहर निकालो ,
अब उसने भी मुह खोला ,
देखिये बाबूजी ,
प्रतिभा तो घर में ही रहेगी ,
और आप पता नहीं क्या क्या अनाप शनाप बके जा रहे हैं ,
आप लोगो ने हमारी जेबें तक तो खाली करा ली ,
अब घरवाली को भी घर से निकालोगे ,
हाँ , लाओं, मेरे महीने के हिसाब का पर्चा तो दे दो ,
लाला गड़बड़ कर देगा ,
इस पर्चे को देख कर पता नहीं आप क्या बडबडा रहे हो ,
दाल , आटे का बढता भाव और सिलेंडर के दाम लिखे हैं इस पर ,
आप पता नहीं क्या समझ रहे हो ,
पप्पू की फीस और घर के राशन का हिसाब,
यह तो हम रोज़ ही लिखते पढते और समझने की कोशिश में हैं ,
पर अब तक नहीं समझे ,
आप समझे क्या ,
कापीराईट @ विनोद भगत
उसे बाहर निकालो ,
अब उसने भी मुह खोला ,
देखिये बाबूजी ,
प्रतिभा तो घर में ही रहेगी ,
और आप पता नहीं क्या क्या अनाप शनाप बके जा रहे हैं ,
आप लोगो ने हमारी जेबें तक तो खाली करा ली ,
अब घरवाली को भी घर से निकालोगे ,
हाँ , लाओं, मेरे महीने के हिसाब का पर्चा तो दे दो ,
लाला गड़बड़ कर देगा ,
इस पर्चे को देख कर पता नहीं आप क्या बडबडा रहे हो ,
दाल , आटे का बढता भाव और सिलेंडर के दाम लिखे हैं इस पर ,
आप पता नहीं क्या समझ रहे हो ,
पप्पू की फीस और घर के राशन का हिसाब,
यह तो हम रोज़ ही लिखते पढते और समझने की कोशिश में हैं ,
पर अब तक नहीं समझे ,
आप समझे क्या ,
कापीराईट @ विनोद भगत
शब्द
शब्द अमृत हैं कभी , शब्द विष भी होते हैं
शब्द प्राण हैं तो शब्द मृत्यु भी होते हैं
शब्द सम्बन्ध, तो शब्द बिखराव भी होते हैं
शब्द अपने हैं , शब्द पराये भी होते हैं
शब्द ख़ास हैं , शब्द आम भी होते हैं
शब्द मित्र हैं , शब्द शत्रु भी होते हैं
शब्द धरती हैं , शब्द आकाश भी होते हैं
शब्द बनाव हैं , शब्द बिगाड़ भी होते हैं ,
शब्द प्राण हैं तो शब्द मृत्यु भी होते हैं
शब्द सम्बन्ध, तो शब्द बिखराव भी होते हैं
शब्द अपने हैं , शब्द पराये भी होते हैं
शब्द ख़ास हैं , शब्द आम भी होते हैं
शब्द मित्र हैं , शब्द शत्रु भी होते हैं
शब्द धरती हैं , शब्द आकाश भी होते हैं
शब्द बनाव हैं , शब्द बिगाड़ भी होते हैं ,
शब्द सत्य हैं , शब्द झूठ भी होते हैं ,
शब्द शब्द हैं , शब्द नि :शब्द भी होते हैं
शब्द बचाव हैं , शब्द नाशवान भी होते हैं ,
शब्द दानव हैं , शब्द भगवान् भी होते हैं ,
शब्द प्राणवान हैं , शब्द मारक भी होते हैं ,
कापीराईट @विनोद भगत
शब्द शब्द हैं , शब्द नि :शब्द भी होते हैं
शब्द बचाव हैं , शब्द नाशवान भी होते हैं ,
शब्द दानव हैं , शब्द भगवान् भी होते हैं ,
शब्द प्राणवान हैं , शब्द मारक भी होते हैं ,
कापीराईट @विनोद भगत
असहाय लोग ,
सुलगते सवालों के बीच ,
धधकते समाज के साथ ,
जी रहे असहाय लोग ,
धुंआ धुंआ होते अरमानों ,
की लाश पर बेजार रोते ,
मरते हुए जी रहे असहाय लोग ,
नित जीने की आशा दिखाते ,
रोज़ पैदा हो रहे मसीहाओं के फुस्स होते ,
आंदोलनों के भंवर में फसे ,
ना जाने कैसे जी रहे असहाय लोग ,
अरबों के वारे न्यारे हो रहे यहाँ ,
बेदर्दों की हमदर्दी के दर्द से कराह रहे ,
बेहद पीड़ा है मन में
फिर भी जी रहे असहाय लोग ,
सुलगते सवालों के बीच ,
धधकते समाज के साथ ,
जी रहे असहाय लोग ,
विनोद भगत
ना जाने कैसे जी रहे असहाय लोग ,
अरबों के वारे न्यारे हो रहे यहाँ ,
बेदर्दों की हमदर्दी के दर्द से कराह रहे ,
बेहद पीड़ा है मन में
फिर भी जी रहे असहाय लोग ,
सुलगते सवालों के बीच ,
धधकते समाज के साथ ,
जी रहे असहाय लोग ,
विनोद भगत
Thursday 7 June 2012
कहानी -----एक और गुलाबो
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&fouksn Hkxr&
Friday 30 March 2012
अच्छा और अहम् का सम्बन्ध ,
जब तुम ,
बहुत अच्छे हो जाते हो ,
तब स्वयं को एक नाजुक
मोड़ पर खड़े पाते हो ,
सच तो यह है ,
बहुत अच्छा हो जाने से ,
तुम पर जिम्मेदारियों का बोझ ,
और बढ जाता है ,
क्योंकि बड़ा आसान है ,
अच्छा बन जाना ,
और उतना ही दुरूह है
अपने अच्छेपन को निभाना ,
बहुत अच्छा हो जाना ,
स्वयं को आदर्श बना लेना ,
शायद एक दिन तुम्हारे भीतर के अहम् ,
जागृत कर दे ,
हो सकता है अहम् सच्चा हो ,
पर अहम् तो अहम् होता है ,
जो एक क्षण में तुम्हारे ,
आदर्शो की पराकाष्टा ,
के दुर्ग को नेस्तनाबूद कर दे ,
और तब अच्छा होने के सुख की अपेक्षा ,
एक भीषण पीड़ा ,
तुम्हारे हिस्से आएगी ,
अच्छा होना और अहम् का सम्बन्ध ,
आग और फूस का है ,
फूस तो तभी तक सुरक्षित है ,
जब तक आग से दूर है ,
इसलिए अपने अच्छेपन में ,
अहम् को मिलाने का प्रयास ,
कितना घातक है .
विनोद भगत
Tuesday 20 March 2012
संबोधन के उदबोधन
संबोधनों के उदबोधनो को ,
समझ सका है क्या कोई ,
जीवन में बदले संबोधनों के साथ ,
पल पल बदलते जीवन के रहस्य ,
संबोधनों की भाषा को क्या पढ़ पाया कोई,
बदले संबोधन के साथ बढ़ता है जीवन ,
बेटा बेटी के संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
चाचा मामा , मौसी फूफा के नए संबोधनों के साथ ,
कब बदल गया औए समय आगे चला गया ,
नित नए संबोधन पुराने संबोधनों के साथ ,
आगे बढ़ता यह जीवन संबोधनों से थकता नहीं ,
स्मरण आते हैं पुराने सबोधन जो अब भी है ,
पर संबोधित करने वाले कहीं खो जाते हैं ,
नए संबोधनों का आकर्षण तो है ,
पर पुराने संबोधनों की तृष्णा मिटती नहीं कभी ,
संबोधन के मायाजाल में उलझा उलझा सा जीवन ,
सुलझाने की चेष्टा में और भी उलझा है ,
संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
संबोधन की यात्रा अनवरत चलती रहेगी ,
संबोधन के मायाजाल से शायद ही कभी ,
मुक्त हो पाए यह जीवन ,
संबोधन है ,
तभी यह जीवन है ,
यही है संबोधन की भाषा और उसका रहस्य
विनोद भगत
समझ सका है क्या कोई ,
जीवन में बदले संबोधनों के साथ ,
पल पल बदलते जीवन के रहस्य ,
संबोधनों की भाषा को क्या पढ़ पाया कोई,
बदले संबोधन के साथ बढ़ता है जीवन ,
बेटा बेटी के संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
चाचा मामा , मौसी फूफा के नए संबोधनों के साथ ,
कब बदल गया औए समय आगे चला गया ,
नित नए संबोधन पुराने संबोधनों के साथ ,
आगे बढ़ता यह जीवन संबोधनों से थकता नहीं ,
स्मरण आते हैं पुराने सबोधन जो अब भी है ,
पर संबोधित करने वाले कहीं खो जाते हैं ,
नए संबोधनों का आकर्षण तो है ,
पर पुराने संबोधनों की तृष्णा मिटती नहीं कभी ,
संबोधन के मायाजाल में उलझा उलझा सा जीवन ,
सुलझाने की चेष्टा में और भी उलझा है ,
संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
संबोधन की यात्रा अनवरत चलती रहेगी ,
संबोधन के मायाजाल से शायद ही कभी ,
मुक्त हो पाए यह जीवन ,
संबोधन है ,
तभी यह जीवन है ,
यही है संबोधन की भाषा और उसका रहस्य
विनोद भगत
Sunday 18 March 2012
खामोश चाहत
मैं छूना चाहता हूँ ,
तुम्हें ,
कुछ इस तरह कि,
छूने का अहसास ,
भी होने पायें तुम्हें ,
क्योंकि , तुम मेरी खामोश चाहत का ,
मंदिर हो ,
मेरी चाहत का भूले से भी ,
अहसास ना करना ,
क्योंकि ये अहसास ,
तुम्हें चुभन और तड़पन देगा ,
और मैं तुम्हें तडपाना तो नहीं चाहता ,
मैं तो बस चाहते ही रहना ,
चाहता हूँ तुम्हें ,
तुम्हें अपनी चाहत का अहसास ,
दिलाये बिना ,
और मैंने अपनी इसी चाहत को ,
खामोश चाहत ,
का नाम दिया है .
विनोद भगत
क्योंकि ये अहसास ,
तुम्हें चुभन और तड़पन देगा ,
और मैं तुम्हें तडपाना तो नहीं चाहता ,
मैं तो बस चाहते ही रहना ,
चाहता हूँ तुम्हें ,
तुम्हें अपनी चाहत का अहसास ,
दिलाये बिना ,
और मैंने अपनी इसी चाहत को ,
खामोश चाहत ,
का नाम दिया है .
विनोद भगत
Monday 27 February 2012
कितने स्वार्थी हुए
भटक रहा समाज ,
गिरते नैतिक मूल्य ,
हर मर्यादा टूटी ,
मानवता कर रही रुदन ,
पुरातन परम्पराओं ,
की जल रही हैं चिताएं ,
आधुनिकता का लबादा ओढे हर कोई ,
छल , दंभ , कपट का जीवन जीते हम ,
झूटे अहम् को स्वाभिमान का नाम दिया ,
कितने स्वार्थी हुए हम ,
तोड़कर मर्यादा के बंधन ,
झूठ के पर्वत पर उदित करा रहे ,
प्रगति का सूर्य ,
गीत राम के गाते ,
कर्म रावण के ,
कैसा विरोधा भासी हुआ जीवन
विनोद भगत
Sunday 26 February 2012
नीड़
प्रकृति का जीव ,
सुन्दर उपहार है नीड़ ,
नीड़ कवच है ,
जीवन का ,
नीड़ प्रकृति की ,
सुन्दर कला कृति ,
जीवन का प्रथम,
सत्य नीड़ ,
कहीं घौसला कहीं मकान ,
पर क्या नीड़ की उपयोगिता ,
समझ पाया मानव ,
अपने ही हाथों से तोड़ता ,
अपने ही नीड़ को ,
नीड़ केवल तिनकों , ईट पत्थरों से ,
बने घर का ही नाम नहीं ,
नीड़ नाम है आशा का ,
नीड़ नाम है यथार्थ का ,
यथार्थ है नीड़ के प्रति निष्ठा का ,
आस्था का ,
नीड़ जहाँ तुम निवास करते हो ,
उस सकल राष्ट्र का ,
नाम है नीड़ ,
और तुम मात्र तिनका हो ,
इस नीड़ का ,
यही यथार्थ है ,
यथार्थ से मुख मोड़कर ,
नीड़ के तिनके तिनके ,
अलग अलग कर ,
ये क्या कर रहे हो ,
तनिक विस्मृति से बहार आओ ,
देखो पाँव भी तुम्हारा है ,
और कुहाड़ी भी तुम्हारे हाथ में है ,
कोई और क्यों ,
अपने कर्म का , तुम ही फैसला करो ,
स्मरण इतना ही रहे ,
नीड़ कवच है जीवन का
विनोद भगत
सुन्दर उपहार है नीड़ ,
नीड़ कवच है ,
जीवन का ,
नीड़ प्रकृति की ,
सुन्दर कला कृति ,
जीवन का प्रथम,
सत्य नीड़ ,
कहीं घौसला कहीं मकान ,
पर क्या नीड़ की उपयोगिता ,
समझ पाया मानव ,
अपने ही हाथों से तोड़ता ,
अपने ही नीड़ को ,
नीड़ केवल तिनकों , ईट पत्थरों से ,
बने घर का ही नाम नहीं ,
नीड़ नाम है आशा का ,
नीड़ नाम है यथार्थ का ,
यथार्थ है नीड़ के प्रति निष्ठा का ,
आस्था का ,
नीड़ जहाँ तुम निवास करते हो ,
उस सकल राष्ट्र का ,
नाम है नीड़ ,
और तुम मात्र तिनका हो ,
इस नीड़ का ,
यही यथार्थ है ,
यथार्थ से मुख मोड़कर ,
नीड़ के तिनके तिनके ,
अलग अलग कर ,
ये क्या कर रहे हो ,
तनिक विस्मृति से बहार आओ ,
देखो पाँव भी तुम्हारा है ,
और कुहाड़ी भी तुम्हारे हाथ में है ,
कोई और क्यों ,
अपने कर्म का , तुम ही फैसला करो ,
स्मरण इतना ही रहे ,
नीड़ कवच है जीवन का
विनोद भगत
Wednesday 22 February 2012
Tuesday 21 February 2012
खुद सुधरो
आओ
समाज को बदलें ,
आओ
लोगो को बदलें ,
आओ
सदाचार सिखाएं ,
आओ
उपदेश दें ,
आओ
सत्य का प्रचार करें ,
आओ
दुनिया को नैतिकता का पथ दिखाएँ ,
आओ
स्वामी बन कर प्रवचन दें ,
तभी
आवाज आयी,
जाओ
...... पहले खुद को सुधार लो ,
तब
यह सब करना ,
खुद
सुधरोगे सब कुछ बदल जाएगा ,
जो
चाहते हो वह सब मील जाएगा
विनोद भगत
मैं क्यों लिखता हूँ ,
मैं
क्यों लिखता हूँ ,
सच
तो यह है ,
कि
मैं खुद भी नहीं जानता ,
विचारों को शब्दों में ढाल कर ,
कुछ
कहने की कोशिश करता हूँ ,
मैं
कुछ नया नहीं गढ़ता ,
वही
जो पहले भी सुना औए लिखा होता है ,
वही
सब स्मरण कराता हूँ ,
मैं
नहीं जानता मेरे लिखने से क्या होगा ,
पहले
भी बहुत कुछ लिखा गया है ,
उसका
क्या कोई सार्थक परिणाम हुआ ,
शायद
नहीं ,
लोग
पढ़ते रहे ,
कुछ
तारीफ़ के पुल गढ़ते रहे ,
जीवन
में कौन उतार पाया ,
अच्छी
बाते पढने में अच्छी लगती है ,
अमल
कब हो पता है ,
शायद
इसीलिए मैं सोचता हूँ ,
मैं
क्या और क्यों लिखता हूँ ,
पर
लिखना मेरा कर्म है ,
फल
की इच्छा ना करूँ ,
तो
लिखना जारी रहेगा ,
विनोद भगत
Monday 20 February 2012
आम आदमी
आम
आदमी मुझसे िब्गड़ गया ,
बुरा
भला कहने लगा ,
गुस्से
में मुझे घूरने लगा ,
लाल
पीली ऑंखें िदखाता ,
बोला
गाली मत देना ,
आज
तो कह िदया ,
आगे
से कभी मुझे ,
नेताजी
मत कहना ,
जो
मेरी कमाई खाता है ,
उसे
मेरे बराबर मत बनाना
विनोदभगत
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