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Friday 17 February 2012

बिकाऊ समाज


सब कुछ बिकने लगा ,
इंसान की निष्ठां भी ,
बाज़ार में बिक रही ,
खरीदार तैयार हैं ,
समाज है बाज़ार हैं ,
शब्द "बाजारू " बड़ा ही घिनौना है ,
पर क्या होगा इस समाज का ,
 हर कोई बाज़ार में बैठा ,
बिकने को लालायित है ,
नेता अभिनेता सभी बिक रहे ,
जो आदर्श थे वह भी बाज़ार में जा बैठे ,
सत्य भी बिक गया ,
झूठ भी अब तो कीमती है ,
पाप बिक रहा ,
पुण्य का भी मोलभाव हो रहा ,
ये बाजारवाद की पराकाष्टा है ,
इस बाज़ार में भगवान् भी हाय बिक गया ,
कौन दिलाएगा इस बाजारू संस्कृति से मुक्ति ,
एकमात्र "कलम " पर था भरोसा ,
पर अफ़सोस वह भी बिकती सी नजर आ रही है ,
                                                                    
                            विनोद भगत

पिता


तुम मेरा आसमान हो ,
तुम प्रश्रय देते हो ,
मेरे लिए बादलों को ,
स्नेह और स्निग्ध ममता ,
के पवित्र जल से ,
सींचा है तुमने मेरी ,
जीवन वाटिका को ,
जग ने तुम्हे केवल पिता कहा है ,
पर मेरे लिए तो ,
तुम अतुलनीय बल हो ,
तुमसे ही तो मुझे जिजीविषा का ,
बिन माँगा वरदान मिला ,
तुम संबल हो मेरा ,
मेरी कही अनकही,
आकांक्षाओं की पूर्ति के सर्जक ,
तुम्हें ही दे दूंगा यह प्राण , जो तुमने ही तो दिए है मुझे ,
प्रतिकार की आकांक्षा में तो ,
नहीं दिया होगा यह शरीर,
पर मेरे हृदय के भीतर ,
छुपी तुम्हारी पूजा ने ,
भर दी अगाध भक्ति तुम्हारे प्रति       
                        विनोद भगत


चुनाव


चुनाव में खड़े लोगो के बीच ,
मुझे ब्राहमण , बनिया ,
दलित , हिन्दू , मुसलमान ,
प्रत्याशी दिखाई दिए ,
हर किसी ने वोट माँगा ,
और में सोचता था ,
चुनाव में आदमी ,
खडा होता है ,
में आज भी तलाश रहा हूँ ,
एक अदद आदमी ,
जो चुनाव लडेगा ,
लेकिन कब खड़ा ,
होगा आदमी ,
चुनाव में ,
क्या कोई ,
बताएगा ,
मुझे ,
जवाब की प्रतीक्षा ,
रहेगी मुझे
    
      विनोद भगत

बचपन की तलाश


आओ चले बचपन की तलाश में ,
सड़क किनारे मिलेगा ,
गंदा सा , छूने को भी जिसे ,
मन ना करेगा ,
अपने बचपन की यादें ,
कितनी सुनहरी थी ,
आह क्या ऐसा बचपन ,
फिर जी पाएंगे ,
असंभव को संभव नहीं कर सकते ,
परन्तु सड़क किनारे खड़े ,
किसी रोते बच्चे को लगा गले ,
क्या अपने बचपन के दिन लौटा पाएंगे
                             विनोद भगत