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Saturday 13 July 2013

तस्वीर बदल जाये

सभी तो धार्मिक हैं यहाँ ,
या दावा करते हैं धार्मिक होने का ,
फिर भी पाप बढ़ रहा है ,
अत्याचार बढ़ रहा है ,
और मै ढूढ़ रहा हूँ धर्म ऐसा ,
जिसमें पाप और अत्याचार ,
अनाचार का समर्थन हो ,
लोग झूठ बोलते हैं ,
किसी भी धर्म में नहीं है ,
पाप अनाचार का समर्थन ,
या मुझे नहीं मिल पाया वह धर्म ,
नहीं पढ़ पाया उस धर्म के सिद्धांत ,
हर धर्म में नीति की ही बात है ,
पर कोई नहीं मानता नीति की बातें ,
पता नहीं धर्म की बातों के विपरीत ,
क्यों जाते हैं सब ,
किसी धर्म की किताब ऐसी भी होनी चाहिए ,
जिसमें अनीति की बातें हों ,
सबको वही पढनी चाहियॆ ,
किताब में पढ़ी बातों पर अमल कौन करता है ,
तब शायद तस्वीर बदल जाये

विनोद भगत

कोई पूछेगा इन भगवानों से


भगवान् ही भगवान् ,
चारों ओर भगवान् ,
फिर भी आपदा ,
फिर भी अन्याय ,
फ़ैल रहा अत्याचार ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,
भीड़ के बीच गोरे मुख ,
मुख पर लम्बा सा तिलक ,
अधरों पर मोहक पर कुटिल मुस्कान ,
माया त्यागने का प्रवचन ,
खुद माया मोह में डूबे ये भगवान् ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,
कड़ी सुरक्षा में ये भगवान् ,
किसका डर है इन्हें ,
भगवान् की सुरक्षा में इन्सान ,
इन्सान की कौन करेगा सुरक्षा ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,
भगवान् तो कुटिया में रहते है ,
आलिशान महलों में रहने वाले ये भगवान् ,
हे भगवान् , ये कैसे भगवान् ,
नित नए नए बढ़ते भगवान् ,
कब अवतरित होगा एक इन्सान ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,

विनोद भगत

Thursday 4 July 2013

छलावों की मृगतृष्णा

चूल्हे पर पानी भी पकाते है कुछ लोग
दरअसल रोज़ छले जाते हैं कुछ लोग ,
बेदर्दों की दुनिया से सीख ली है उन्होंने ,
बच्चों को भूखे ही सुलाते हैं कुछ लोग
छलावों की मृगतृष्णा नियति है जिनकी ,
अच्छे की आस में मर जाते है कुछ लोग
खाली पेट में इंसानियत नहीं पनपती ,
इसीलिए हैवान बन जाते हैं कुछ लोग ,
चूल्हे पर पानी भी पकाते है कुछ लोग
दरअसल रोज़ छले जाते हैं कुछ लोग ,

विनोद भगत

Monday 10 June 2013

यह कैसी उन्नति


कच्चे घरों में रिश्ते ,
होते थे पक्के ,
अफ़सोस कि अब ,
घर तो पक्के हैं ,
पर रिश्ते कच्चे हो गए हैं ,
कच्ची सडकों पर उड़ती धूल ,
में कितना अपनापन था ,
अब डामर की काली सडकों ,
से नहीं हो पता संवाद भी ,
खेतों में जब उगा करती थी केवल फसल ,
अब तो फ़्लैट उगने लगे खेतों में भी ,
गैस के चूल्हे का बेस्वाद भोजन ,
बूढी दादी के बनाए मिटटी के चूल्हे ,
में बनी रोटी का अलौकिक स्वाद अब कहाँ रहा ,
हफ़्तों बाद पहुचती चिट्ठियों में उमड़ता प्यार ,
एक सपना मात्र हैं ,
मोबाईल के एस एम एस में कहाँ होता है प्रेम का अंश ,
भाव तो हर चीज़ के बढ़ रहे है ,
पर "भाव" अब कहाँ रहे ,
सच में क्या हम उन्नति कर रहे हैं ,
पर कैसी उन्नति ,

विनोद भगत

Saturday 8 June 2013

उत्तर दो ,



उर में वेदना है गहरी ,
नयनों के अश्रु हुए शुष्क ,
अधरों से शब्द नहीं छूट रहे ,
कलरव खगों का हुआ मौन ,
प्रकृति की मनोरम छटा खोज रहा मै ,
अरे , यह कौन निर्मम हैं ,
जिसने रौद दिया कोमल मन को ,
यह कौन है जिसने बदले आदर्श ,
छद्म आदर्शों की
मृग मरीचिका के पीछे भागने की परम्परा ,
किस दुर्बुद्धि ने की शुरू ,
मौन नहीं साधो ,
उत्तर दो ,
मानवता क्यों कर रही क्रंदन ,
उत्तर दो ,

विनोद भगत

Thursday 6 June 2013

बस्तियों में

बस्तियों में क़ानून हो गया जंगल का,
जंगल की व्यवस्था अब बदलनी होगी,
फर्क कैसे हो बस्ती और जंगल के बीच,
एक बहस इस बात पर भी करनी होगी,
जानवर सा ही लगने लगा है आदमी,
सूरत जानवर की अब बदलनी होगी,
अफ़सोस क्यों अपने कर्मों का करें अब ,
गौरव की नहीं शर्म गाथाएँ लिखनी होगी
बस्तियों में क़ानून हो गया जंगल का,
जंगल की व्यवस्था अब बदलनी होगी,
विनोद भगत

Tuesday 4 June 2013

एक कहानी बड़ी पीड़ाभरी

एक कहानी बड़ी पीड़ाभरी है मेरे देश की ,
मगर आंसू नहीं आते किसी की आँखों में ,
संवेदनाएं तो मृत हो चुकी हैं मेरे देश की ,
रोज़ ही होती मानवता की नृशंस हत्या ,
आँखें तो बंद हैं क़ानून की मेरे देश की
सरेआम लुट जाती हैं अस्मतें यहाँ रोज़ ,
है इन्साफ की आस में बेटी मेरे देश की
है कौन सा नीच कर्म जिसमे नहीं लिप्त
भूल गए गौरवमयी थातियाँ मेरे देश की

विनोद भगत