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Thursday 4 April 2013

गीत लिखा है मैंने ,


दर्द की स्याही से गीत लिखा है मैंने ,
वेदना को अपना मीत लिखा है मैंने ,
बड़ी लम्बी हो गयी है व्यथा की कथा,
ह्रदय की करुणा का संगीत दिया है मैंने,
दर्द में भी अनोखा स्वाद आने लगा है मुझे ,
तुम क्या जानो पीड़ा को जीत लिया है मैंने ,
जो पूछते हो मुस्कराता हूँ क्यों हर दम मैं ,
हर हाल में जीवन जीना सीख लिया है मैंने
दर्द की स्याही से गीत लिखा है मैंने ,
वेदना को अपना मीत लिखा है मैंने ,
विनोद भगत

Tuesday 2 April 2013

सूर्य अस्त ,पहाड़ मस्त ,

म्यर पहाडक ज्वानों
सुण लिया यक बात ,
शराब पिबेर नि करो
जवानी अपणी बरबाद ,
शराबक लिजी किलें बदनाम
करौन्छां अपणी भुमी ,
अब बदल दिया भागि ,
पहाडेक पहाडीक परिभाषा ,
सूर्य अस्त ,पहाड़ मस्त ,
कुनी वालोंक मूख बंद कर दिया अब ,
हाथ जोडबेर विनती छु हमरी ,
द्य्खें दिया अब सबुकें ,
बतें दिया अब सबुकें ,
जो यस कौल ,
वीक मुखम जलि लाकड़ लगे दिया ,
पर शराब अब पिन छोड़ दिया ज्वानो

विनोद भगत

Thursday 21 March 2013

मी पहाड़ी छू ,

होई रें , मी पहाड़ी छू ,
पर पहाड़ी बुलान में म्य्कें शरम लागें ,
मी भौतें ठुल ह्वेग्यों नै ,
जब आदिम ठुल ह्वेजां ,
तब तली द्य्खन मुश्किल ह्वेजा,
ईज कें इजा नि कै सकन ,
अरे , लोग म्यर मज़ाक नि करल ,
अब त मी गिटपिट अंग्रेजी बुलानु ,
अब मी ठुल जो भै ,
अपनि भाषा और संस्कृति कै भुलें बेर ,
ठुल हुनक रिवाज़ चल ग्याँ आजकल
विनोद भगत

नानतिन रुनैरि ,

नानतिन रुनैरि ,
ख्यत में जानवार उज्याड खां रई ,
ऊ दूकान में ताश में मस्त हैरी ,
ब्याव कै शराब चै ,
बादम ढाढ़ मारनी ,
हमर गौ में के नि हुन ,
भौतें दुखी छु हौ दाज्यू ,
अब दिल्ली जानु भागि ,
घर बार छोडिबेर ,
दुसरे कि चाकरी करुल ,
अपन घर नि कमें सक ,
जमींदार ह्वेबेर नौकर बन जनु
                                       विनोद भगत

पलायनक दर्द

जो पहाड़ में नि रुन ,
ऊं पलायनेक चिंता करणी ,
पहाडक दर्द पहाड़ में रैबेर ,
द्यखा ,
द्वी दिनक लिजी पहाड़ में ऐबेर
यांक सुन्दरता में मुग्ध हुणोक रिवाज़ ,
अब बंद कर दिया भागि ,
यां रैबेर यांक लोगोंक पीड़ा भोग बेर ,
तब सोचिया ,पलायनक घोर दर्द कस हूं ,
पहाड़ तुमुकें बुलोनि ,
कब आला लौट बेर ,
विनोद भगत

आओ कुछ बात करें ,

आओ कुछ बात करें ,
बाते दुनिया जहान की ,
देश की बातें ,विदेश की बातें ,
घर में क्या हो रहा है ,
कौन चिंता करे ,
अन्धेरा घना हो रहा है ,
अंतस में ,
रौशनी की तलाश कर रहे हम कहाँ ,
मन के अँधेरे दिए से कभी रोशन जहाँ हुआ ,
दुःख से कौन दुखी होता है ,
दुःख तो सामने वाले का सुख देता है ,
हाँ , जानते सभी हैं ,
पर जान कर अनजान बने हुए हम ,
ना जाने क्यों अनजान बने हुए हम ,
यह एक रहस्य है ,
इस रहस्य की खोज करें हम ,
आओ कुछ बात करें
                                      विनोद भगत

Sunday 6 January 2013

हम अब कुत्ते वाले हैं


मुझे आज भी याद है ,
मेरे गाँव के घर में एक गोठ होता था ,
गोठ में रोज़ सुबह जाना मुझे अच्छा लगता था ,
दादी के साथ गोठ में गोबर की महक ,
एक आनंद का अहसास कराती थी ,
दादी जब गायो को दुहती थी ,
बरतन में गिरते दूध की धर का संगीत मन्त्र मुग्ध करता था ,
फिर बरतन के झाग को देखकर मन आनंदित होता था ,
दूध के स्वाद का एक अलग ही नशा था ,
मेरे गाँव के कच्चे घर में चूल्हे पर उबलता था दूध ,
गाँव में जिस घर में गायें नहीं होती वहां दूध पहुचाना अच्छा लगता था ,
हमारे वहां गाये थी , गाँव में हमारा बड़ा मान था ,
आज गाँव नहीं , वो गोठ नहीं , गायें नहीं , कच्चा घर नहीं ,
शहर में एक मकान है , और बड़े बड़े कुत्ते हैं ,
इसलिए हमारा बड़ा मान है ,
सुबह शान से कुत्ते को घुमाते हैं ,
कई लोग हमें इर्ष्या से देखते हैं ,
हमारा दूध वाला भी हमें बाबूजी कहता है ,
दूध वाले के पास तो सिर्फ गाय है ,
हमारे पास बड़े बड़े कुत्ते हैं ,
हम अब कुत्ते वाले हैं ,
समझ में नहीं आता हम बड़े कब थे ,
जब गाय वाले थे ,
या अब, जब कुत्ते वाले हैं ,

विनोद भगत