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Friday 25 October 2013

कहानी .....एक और गुलाबो( प्रथम किश्त ) ----------विनोद भगत -----

मैं नया नया इस शहर में आया था। पहली पोस्टिंग थी। बड़ी मुश्किल से एक कमरा मिला। उसमें भी कई प्रतिबंध नौ बजे बाद नहीं आओगे, लाइट फालतू नहीं जलाओगे, वगैरा वगैरा। खैर, मुझे कमरा चाहिये था। प्रतिबंधों और शर्ताे से मैने समझौता कर लिया। मकान मालकिन एक अधेड़ किन्तु रौबीले व्यक्तित्व की स्वामिनी थी।
पहले ही दिन उसने मुझ पर अपने रौबीले भारी भरकम व्यक्तित्व की छाप छोड़ दी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि खुले और स्वच्छंद माहौल में रहने का आदी में इस प्रतिबंधित वातावरण के जाल की छटपटाहट में कैसे रह पाऊंगा। किन्तु अगले कुछ दिनों में वह हुआ जिसकी मैंने कभी कल्पना भी न की थी।
मैं प्रतिदिन अपने आफिस रिक्शा से ही आता जाता था मेरा कमरा सड़क की तरफ था इससे मुझे विशेष दिक्कत नहीं होती थी। मेरी मकान मालकिन का नौकर मेरा विशेष ख्याल रखता था। शायद उसे इस बात के निर्देश थे। एक दिन शाम के समय जब मैं अपने कमरे में वापस आ रहा था कि गली के नुक्कड़ पर मुझे एक युवती दिखाई दी। गौर वर्णीय उस युवती का सौंदर्य अनुपम तो नहीं कहा जा सकता किन्तु आकर्षक अवश्य कहा जा सकता है। मैं गली के नुक्कड़ पर ही रिक्शे से उतर गया। पैदल जब उस युवती के नजदीक पहॅुचा तो भांप गया कि युवती दिन हीन अवस्था में थी किन्तु उसकी आंखों में शरारती चमक साफ दिखाई दे रही थी।
मैं अपने कमरे की ओर बढ़ गया वैसे भी चरित्र के मामले में मैं अपने आप को साफ समझता हूँ। कमरे के पास पहुँचते ही जैसे मैने ताला खोला कि मुझे पीछे आहट सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो वहीं युवती खड़ी थी। थोड़ी देर तक हम दोनों में संवादहीनता की स्थिति रही। युवती ने दोनांे हाथ जोड़कर मेरा अभिवादन किया।
जबाव में मैंने पूछा,‘‘क्या चाहिये।’’
चहकती श्री युवती बोली, ‘‘ बाबूजी मैं गुलाबो हँू।
तो , मैं क्या करूँ, ‘‘ मैं उस युवती के सान्निध्य से उतना आनंदित नहीं था जितना इस बात से आंतकित था कि कहीं मेरी मकान मालकिन ने मुझे किसी युवती से बात करने देख लिया तो न जाने मेरा क्या हश्र हो। इसलिये मैंने उससे पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से रूखेपन से बात की। अभी मैं उससे छुटकारा पाने के बारे में सोच ही रहा था कि मुझे एक आवाज सुनाई दी अरे गुलाबो, ‘‘यहां क्यों आई है, बाबू जी क्या आपने इसे बुलाया है।’’ गुलाबो चहकी ,’’ अरे नहीं, काका, मैं खुद आई हूॅं बाबूजी ने नहीं बुलाया।’’ गुलाबो ने भी एक निर्णायक की भांति मुझे तत्काल दोष मुक्त कर दिया। काका ने मुझे कुछ कहने के बजाय गुलाबो को लगभग डंाटने वाले अंदाज में कहा कि गुलाबो, तू यहां मत आया कर मालकिन नाराज होती है।
गुलाबो चली गई किन्तु मेरे समक्ष एक अबूझ पहेली बन कर ख्यालों में खड़ी रही। मैंने काका की ओर प्रश्न भरी नजरों से देखा काका संभवतः मेरी आंखों के प्रश्न को पढ़ चुके थे। उन्होनें राज भरे अंदाज में कहा बाबूजी, ऐसी लड़कियों के चक्कर में मत पड़ना ये खुद तो बदनाम है। आपको भी कहीं का नहीं छोड़ेगी। काका ने मुझे सलाह दी या फिर सलाह के बहाने धमकाया मैं समझ नहीं पाया। वैसे भी ‘औरत’ शब्द की मैं काफी कद्र करता है। खास तौर से ऐसी औंरते ं जिनके साथ ‘बदनाम’ शब्द जुड़ता है मैं कई बार सेाचता हूँ कि औरत की बदनामी का मूल कारण पुरूष की ‘हवस’ है फिर बदनामी का दाग अकेले औरत के दामन पर ही क्यांे? और मैं कभी इस प्रश्न का संतोष जनक उत्तर नहीं ढूंढ पाया।
मेरी वह रात गुलाबो के बारे में सोचते-सोचते कटी। सुबह आफिस के लिये तैयार हो रहा था कि दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। मैंने झांककर देखा तो मेरी सांस थम सी गई। दरवाजे पर गुलाबो खड़ी थी बिना किसी दरवाजे पर गुलाबो खड़ी थी। बिना किसी औपचारिकता के वह मुझे एक तरफ कर कमरे के अंदर आ गई।
मैं स्वरहीन स्तब्ध सा कमरे में खड़ा हो गया। मेरी संास की आवाज भी कमरे में गंूज रही थी। एकाएक गुलाबो ने स्तब्धता तोड़ी। शोख और चंचल आवाज में बोली’’, बाबूजी, आप यहां अकेले रहते है। मैं जानती हूँ। आप मुझे काम पर रख लीजिये आपका सारा काम कर दिया करूंगी। हां, महीने के पैसे पहले तय करने होंगे।’’
एक साँस में गुलाबो ने अपने आने का मंतव्य समझाया और मेरे हां या न की प्रतीक्षा किये बगैर गुलाबो ने स्वयं को मेरी सेवा में नियुक्त भी कर लिया।
अब तक मैं स्वयं को नियत्रिंत कर चुका था। मैंने हल्के स्वर में कहा ‘‘गुलाबो, मैं अपना काम अपने आप कर लेता हूँं। मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है।
गुलाबो, जो अब तक चहक रही थी, उदास सी बोली ‘‘ तो बाबूजी, मेरे बारे में आपसे भी काका ने उल्टा सीधा कह दिया। पर बाबूजी मैं वैसी नहीं, जैसा कहते हैं। आप ही बताओं, क्या बिना मां बाप के होना गुनाह है? इसमें मेरा क्या कसूर है?’’ इतना कुछ कहने में गुलाबो की आंखों में आंसू आ गये थे।
उसकी निश्छलता व साफगोई का मैं कायल होता जा रहा था मेरा हृदय ‘औरत’ की इस दशा से द्रवित हो रहा था। पर मन की संवेदनायें मन में ही दबी रही। मैंने उससे इतना ही कहा, ‘गुलाबो, अब मुझे आफिस जाना है देर हो रही है।’’
गुलाबो जाते जाते बोली,‘‘ बाबूजी मैं जा रही हूँ शाम को आऊंगी। मुझे बता देना कब से काम पर आना है।’’ वह मेरे जबाव की प्रतीक्षा किये बगैर चली गई।
;क्रमश.....
-विनोद भगत-...

Sunday 13 October 2013

ज़मीन नफ़रत की ,

ज़मीन नफ़रत की ,
और खाद मिलायी दंगों की ,
वोट की फसल पाने के लिए ,
हकीकत यही है
सियासत में घुस आये नंगों की ,
सत्ता मिलते ही एकदम ,
कैसे सूरत औ सीरत
बदल जाती है वोट के भिखमंगो की ,
चेहरों पर इनके ना जाना ,
दीखतेहै ये जरुर इंसानों से 
करम और हरकतें हैं भुजंगों की 
घूम रहे कई लायक सड़कों पर ,
क्या करें विवश है करने को चाकरी ,
राजनीति में मौज मनाते लफंगों की ,
                              विनोद भगत


क्षमा करो हे माँ


हरितवसना सुमधुर गंधा पीयूष जननी हे ध्ररा ,
नव रस नव जीवन दायिनी क्षमा करो हे माँ ,
है नादान,अबोध मानव बन रहा आत्मघाती 
कर प्रकृति का अपमान बन रहा घोर अपराधी ,
तेरे ही तो पुत्र है तू ही है माँ जगत्जननी 
हरितवसना सुमधुर गंधा पीयूष जननी हे ध्ररा , 
नव रस नव जीवन दायिनी क्षमा करो हे माँ 
विनोद भगत

बाधाओं से ही लक्ष्य है पाना



अश्लथ ,अप्रतिहत अवधार्य कर्म असि आगे बढ़ते है जाना
 
कंटक पथ पद नग्न , पर अविराम तुझे चलते है जाना
 
बाधा पर्वत सी होती है ,साहस का मान रख चलता जा
 
लक्ष्य अर्जुन सा देखना, संधान करने से नहीं है घबराना 
विराम विश्राम हैं कुटिल शत्रु, लक्ष्य संधान के पथ में ,
विचलित ना हो पथिक बाधाओं से ही लक्ष्य है पाना 
विनोद भगत

हिन्दू इस देश के लिए खतरा

हिन्दू इस देश के लिए खतरा बन गए ,
वोट के लिए बलि का बकरा बन गए ,
मिल जुल के रहने की आदत अब छूटी,
दरअसल राजनीति का ककहरा पढ़ गए
मज़हब में सभी के है प्यार के अक्षर बहुत ,
जाने क्यों शब्द खून का कतरा बन गए ,
अपने स्वार्थ की बातो पर खूब चिल्लाए ,
और मतलब की बात पर बहरा बन गए
                                     विनोद भगत .............


Monday 19 August 2013

अंधेरों से .......

अंधेरों से अब मुझे प्यार होने लगा है ,
इनमें उजालों का सुखद इन्तजार तो है ,
सुख के दिन अब रोज़ ही डराते हैं मुझे ,
दुःख की घड़ियाँ लगती करीब जो हैं ,
मिलन अब उतना नहीं भाता है मुझे ,
विरह की बेला दिखती सामने को है ,
कैसे कह दूं प्यार तुमसे है मुझे ,
मेरी खता का इन्तजार जमाने को है

विनोद भगत

Wednesday 7 August 2013

आओ सृजन करें...............

आओ सृजन करें फिर से इस धरा पर मनोहर धाम का ,
सार्थक करें जन्म लेने का लक्ष्य जीवन है इसी काम का ,
उन्मुक्त गगन से सीख लें उच्च विचारों की उड़ान का ,
आओ लौट आयें अब भूला हुआ बनकर किसी शाम का ,
मर्यादा का करना है प्रतिस्थापन फिर से इस जगत में ,
सीख तो रावण से भी लें पर आदर्श अपनाएँ राम का ,
झूठ के महल खड़े बहुत कर लिए दुःख ही दुःख पाया
सतपथ का कठिन,पर अंत होगा सुखद परिणाम का ,
शताब्दियों के आदर्श एक पल में हो जाया करते हैं ख़ाक ,
बहुत कुछ अब करना होगा समय नहीं यह विश्राम का
आओ सृजन करें फिर से इस ध्ररा पर मनोहर धाम का ,
सार्थक करें जन्म लेने का लक्ष्य जीवन है इसी काम का ,
विनोद भगत

Sunday 21 July 2013

हिमालय की पुकार

सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,

क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो ,

प्रगति के नाम पर कब तक होगी नादानी ,

रोकना है विनाश , और प्रलय घमासान ,

प्रकृति की रक्षा करने वालो के विचार चुनो ,

सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,

क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो ,

जंगल काटते रहे और पानी को रोकते रहे ,

कितना वैभव और सुख देती वसुंधरा हमको ,

जागो रे जागो कृतघ्नों सा मत व्यवहार करो ,

सुनो रे , सुनो रे हिमालय की पुकार सुनो ,

क्या कहती बहती नदिया की धार सुनो

विनोद भगत

भक्ति का मार्ग

तुम मेरे पास श्रद्धा से आते ,
मैं श्रद्धा और भक्ति का भूखा हूँ ,
पर तुम तो अपना वैभव दिखाने आने लगे ,
तुम ही तो कहते हो , मैं सबको देता हूँ ,
मैं सर्वशक्तिमान हूँ , मुझमें समूचा जग समाया है ,
पर तुम तो मुझे ही दिखाने लगे अपनी तुच्छ शक्ति ,
धन धान्य मुझसे पाकर मुझे ही देने लगे ,
भूल गए मैंने तुम्हें इस योग्य बनाया ,
हाँ , मैंने बनाया इसलिए कोई दीन ना रहे ,
एक भी दीन जब तक है ,
मैं कैसे प्रसन्न रह सकता हूँ ,
बुद्धिमान कैसे कहूँ तुम्हें ,
तुम समझ नहीं पाए मुझे ,
नहीं जान पाए मेरा मंतव्य ,
मुझे प्रसन्न करने की झूठी कोशिश करते रहे ,
मैं संहारक भी हूँ ,
सृष्टि का सृजन भी मैंने ही किया है ,
पर , तुम समझ बैठे स्वयं को निर्माता ,
सच में तुम कितने मूर्ख बुद्धिमान हो ,
मुझे नहीं चाहिये तुम्हारा धन ,
मेरी बनाई सृष्टि के निर्माण से प्रेम करो ,
सच कहूँ यही है मेरी भक्ति का मार्ग ,
विनोद भगत

Saturday 13 July 2013

आग सीने मे--------

-

आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
आओ जला दें अब अन्याय के महल ,
खामोशी को विरोध की मशाल बनाएं ,
खुद ही मसीहा बन करनी होगी पहल,
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
उनके ज़ुल्मों की अब हो गयी इन्तहां ,
सुनो शास्त्र नहीं अब शस्त्र उठाने होंगे ,
ईमान की आंधी से सीने जाएँ दहल
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,
खून के आंसू रुलाने वालोँ ख़बरदार ,,
हमारी शांति लाएगी एक दिन तूफ़ान ,
हर ज़ुल्म का हिसाब लेंगे पल पल ,
आग सीने में कब तक दबाएँ रहें हम,

विनोद भगत

अपने आप उजड़ रहे हैं

रिश्तो की ठोस बर्फ अब कहाँ ,
संबंधों के ग्लेशियर पिघल रहे हैं ,
लिहाजों की नहीं कोई जगह अब ,
वर्जनाओं के पर्वत उधड रहे हैं ,
देवी मानते हैं कितना नारी को अब ,
अखबारों में रोज़ ही पढ़ रहे हैं ,
आदर्शों की रोज़ होली जलाते अब ,
वीभत्स कहानियां ही गढ़ रहे हैं ,
भावनाओं की लगातार होती ह्त्या ,
प्रगति के कैसे सोपान चढ़ रहे हैं,
दोष हमारा ही है अपराधी भी हम ,
अपना कसूर किसके माथे मढ़ रहे हैं ,
किसी ने नहीं किया यह कब सोचेंगे ,
हां खुद ही अपने आप उजड़ रहे हैं ,

विनोद भगत ,

तस्वीर बदल जाये

सभी तो धार्मिक हैं यहाँ ,
या दावा करते हैं धार्मिक होने का ,
फिर भी पाप बढ़ रहा है ,
अत्याचार बढ़ रहा है ,
और मै ढूढ़ रहा हूँ धर्म ऐसा ,
जिसमें पाप और अत्याचार ,
अनाचार का समर्थन हो ,
लोग झूठ बोलते हैं ,
किसी भी धर्म में नहीं है ,
पाप अनाचार का समर्थन ,
या मुझे नहीं मिल पाया वह धर्म ,
नहीं पढ़ पाया उस धर्म के सिद्धांत ,
हर धर्म में नीति की ही बात है ,
पर कोई नहीं मानता नीति की बातें ,
पता नहीं धर्म की बातों के विपरीत ,
क्यों जाते हैं सब ,
किसी धर्म की किताब ऐसी भी होनी चाहिए ,
जिसमें अनीति की बातें हों ,
सबको वही पढनी चाहियॆ ,
किताब में पढ़ी बातों पर अमल कौन करता है ,
तब शायद तस्वीर बदल जाये

विनोद भगत

कोई पूछेगा इन भगवानों से


भगवान् ही भगवान् ,
चारों ओर भगवान् ,
फिर भी आपदा ,
फिर भी अन्याय ,
फ़ैल रहा अत्याचार ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,
भीड़ के बीच गोरे मुख ,
मुख पर लम्बा सा तिलक ,
अधरों पर मोहक पर कुटिल मुस्कान ,
माया त्यागने का प्रवचन ,
खुद माया मोह में डूबे ये भगवान् ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,
कड़ी सुरक्षा में ये भगवान् ,
किसका डर है इन्हें ,
भगवान् की सुरक्षा में इन्सान ,
इन्सान की कौन करेगा सुरक्षा ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,
भगवान् तो कुटिया में रहते है ,
आलिशान महलों में रहने वाले ये भगवान् ,
हे भगवान् , ये कैसे भगवान् ,
नित नए नए बढ़ते भगवान् ,
कब अवतरित होगा एक इन्सान ,
कोई पूछेगा इन भगवानों से ,

विनोद भगत

Thursday 4 July 2013

छलावों की मृगतृष्णा

चूल्हे पर पानी भी पकाते है कुछ लोग
दरअसल रोज़ छले जाते हैं कुछ लोग ,
बेदर्दों की दुनिया से सीख ली है उन्होंने ,
बच्चों को भूखे ही सुलाते हैं कुछ लोग
छलावों की मृगतृष्णा नियति है जिनकी ,
अच्छे की आस में मर जाते है कुछ लोग
खाली पेट में इंसानियत नहीं पनपती ,
इसीलिए हैवान बन जाते हैं कुछ लोग ,
चूल्हे पर पानी भी पकाते है कुछ लोग
दरअसल रोज़ छले जाते हैं कुछ लोग ,

विनोद भगत

Monday 10 June 2013

यह कैसी उन्नति


कच्चे घरों में रिश्ते ,
होते थे पक्के ,
अफ़सोस कि अब ,
घर तो पक्के हैं ,
पर रिश्ते कच्चे हो गए हैं ,
कच्ची सडकों पर उड़ती धूल ,
में कितना अपनापन था ,
अब डामर की काली सडकों ,
से नहीं हो पता संवाद भी ,
खेतों में जब उगा करती थी केवल फसल ,
अब तो फ़्लैट उगने लगे खेतों में भी ,
गैस के चूल्हे का बेस्वाद भोजन ,
बूढी दादी के बनाए मिटटी के चूल्हे ,
में बनी रोटी का अलौकिक स्वाद अब कहाँ रहा ,
हफ़्तों बाद पहुचती चिट्ठियों में उमड़ता प्यार ,
एक सपना मात्र हैं ,
मोबाईल के एस एम एस में कहाँ होता है प्रेम का अंश ,
भाव तो हर चीज़ के बढ़ रहे है ,
पर "भाव" अब कहाँ रहे ,
सच में क्या हम उन्नति कर रहे हैं ,
पर कैसी उन्नति ,

विनोद भगत

Saturday 8 June 2013

उत्तर दो ,



उर में वेदना है गहरी ,
नयनों के अश्रु हुए शुष्क ,
अधरों से शब्द नहीं छूट रहे ,
कलरव खगों का हुआ मौन ,
प्रकृति की मनोरम छटा खोज रहा मै ,
अरे , यह कौन निर्मम हैं ,
जिसने रौद दिया कोमल मन को ,
यह कौन है जिसने बदले आदर्श ,
छद्म आदर्शों की
मृग मरीचिका के पीछे भागने की परम्परा ,
किस दुर्बुद्धि ने की शुरू ,
मौन नहीं साधो ,
उत्तर दो ,
मानवता क्यों कर रही क्रंदन ,
उत्तर दो ,

विनोद भगत

Thursday 6 June 2013

बस्तियों में

बस्तियों में क़ानून हो गया जंगल का,
जंगल की व्यवस्था अब बदलनी होगी,
फर्क कैसे हो बस्ती और जंगल के बीच,
एक बहस इस बात पर भी करनी होगी,
जानवर सा ही लगने लगा है आदमी,
सूरत जानवर की अब बदलनी होगी,
अफ़सोस क्यों अपने कर्मों का करें अब ,
गौरव की नहीं शर्म गाथाएँ लिखनी होगी
बस्तियों में क़ानून हो गया जंगल का,
जंगल की व्यवस्था अब बदलनी होगी,
विनोद भगत

Tuesday 4 June 2013

एक कहानी बड़ी पीड़ाभरी

एक कहानी बड़ी पीड़ाभरी है मेरे देश की ,
मगर आंसू नहीं आते किसी की आँखों में ,
संवेदनाएं तो मृत हो चुकी हैं मेरे देश की ,
रोज़ ही होती मानवता की नृशंस हत्या ,
आँखें तो बंद हैं क़ानून की मेरे देश की
सरेआम लुट जाती हैं अस्मतें यहाँ रोज़ ,
है इन्साफ की आस में बेटी मेरे देश की
है कौन सा नीच कर्म जिसमे नहीं लिप्त
भूल गए गौरवमयी थातियाँ मेरे देश की

विनोद भगत

Saturday 18 May 2013

अंतहीन तलाश

ठाकुर ,ब्राहमण ,दलित , यादव,

और भी ना जाने कौन ,
मेरे देश में सभी मिलते हैं ,
नहीं मिलता तो एक आदमी नहीं मिलता ,
मैं तलाश रहा हूँ एक आदमी ,
,गुजराती पंजाबी , मराठी , पहाड़ी .
यह सब भी मिलते हैं मेरे देश में ,
नहीं मिलता तो एक हिंदुस्तानी ,
मैं तलाश रहा हूँ एक हिंदुस्तानी ,
हिन्दू , मुस्लिम ईसाई और सिख भी ,
मेरे देश में मिलते हैं ,
मै ढूढ़ रहा हूँ एक इंसान ,
नेता ,अभिनेता , समाजसेवक भी ,
मेरे देश में आसानी से मिलते हैं ,
मैं ढूंढ़ रहा हूँ एक भला मानुष ,
मेरी तलाश जारी है अभी भी ,
शायद अंतहीन तलाश

विनोद भगत

समाजसेवक ,

नमस्कार , मै समाजसेवक ,
आपकी सेवा के लिए सदा तत्पर ,
कहिये , आपकी क्या समस्या है ,
अरे हाँ आराम से , मेरे चमचमाते मार्बल के फर्श से बचना ,
कहीं फिसल ना जाना ,
मेरे गले सोने की चेन देख रहे हो भाई ,
यह सब मेरी समाजसेवा का ही फल है ,
सच में समाजसेवा में बड़ा आनंद है ,
आप बताएं ,मै आपके लिए क्या कर सकता हूँ ,
वह बोला , समस्या मेरी आप शायद ही सुलझा पाओ ,
मै समाज सेवक , मुझको चुनौती दे रहे हो ,
तुम नहीं जानते बाहर खड़ी सफ़ेद रंग की महंगी गाडी ,
यह शानदार कोठी यह सब मैंने समाजसेवा से ही तो कमाया है ,
बड़े नेताओं और मंत्रियों तक मेरी पहुँच ,
सब समाजसेवा का ही तो प्रतिफल है ,
वह बोला , फिर भी तुम मेरी समस्या नहीं सुलझा सकते ,
आखिर कौन सी समस्या है , तुम्हारी ,
तुम जैसे समाजसेवक ही हमारी सबसे बड़ी समस्या है ,
नहीं , नासूर है , तुम अपने आप को समाजसेवक कहलाना बंद कर दो ,
समाज का कुछ भला होगा ,
बताओ ,सुलझा पाओगे क्या ,
कल तक तुम्हारी गिनती उठाईगीरों में होती थी ,
आज तुम समाज सेवक हो गए हो ,
दरअसल यही तो बड़ी समस्या है ,
दूर कर पाओगे ,
मै निरुत्तर था ,
वह कहे जा रहा था ,
समाजसेवक सुने जा रहा था ,

विनोद भगत

काला धन ,

भारत एक सांस्कृतिक देश है ,
नेताजी बोल रहे थे ,
पत्रकार बोले ,नेताजी काला धन ,
देश की सबसे बड़ी समस्या है ,
आप क्या कहेंगे इस बारे में ,
नेताजी आग बबूला हो गए ,
पत्रकारों पर आँखें तरेरी ,
गुस्से से बोले ,
आप इस पावन देश की संस्कृति को प्रदूषित कर रहे हैं ,
इस वैदिक और सांस्कृतिक देश में धन लक्ष्मी जी होती हैं ,
और आप लक्ष्मीजी को काला कह रहे हो ,
इसीलिए धन (लक्ष्मीजी ) हमारे पास है ,
आप धन कमाने को पाप कहते हो ,
कैसे अधर्मी हो ,
धर्म का पालन करो , धन की पूजा करो ,
धन के लिए कुछ भी करो ,
तभी लक्ष्मीजी प्रसन्न होंगी ,
आईंदा काला धन कभी मत कहना ,
धन तो धन है ,
हम तो धन की यानी लक्ष्मीजी की इज्ज़त करते हैं ,
तभी तो बेहतर ज़िन्दगी जीते हैं ,
विनोद भगत

Saturday 20 April 2013

दरिंदों की सभा


बड़ा गंभीर विचार
दरिंदों की सभा में,
होने लगा था ,
सारे दरिन्दे चिंता में थे ,
अरे ये क्या हो रहा है ,
आदमी हमारी बराबरी पर है ,
हमारी जात पर भीषण ख़तरा है ,
आओ हम सब मिलकर एक हो जाए ,
आदमी को उसकी असली औकात बताएं ,
एक दरिन्दे को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजें ,
यह क्या आदमी के पास जाने के लिए
तैयार नहीं था कोई दरिंदा ,
सब डर रहे थे ,
आखिर कौन जाएगा आदमी के पास ,
सारे दरिन्दे इसी सोच में डूबे थे ,
दरिंदों के चेहरों पर आदमी का खौफ ,
साफ़ नज़र आ रहा था ,
आदमी जो दरिंदों से डरता था ,
आज उसी आदमी के नाम से ,
दरिंदों की हवा संट थी ,
दरिंदें , बहुत परेशान हैं ,
आदमी का क्या करें ,

विनोद भगत

Thursday 4 April 2013

गीत लिखा है मैंने ,


दर्द की स्याही से गीत लिखा है मैंने ,
वेदना को अपना मीत लिखा है मैंने ,
बड़ी लम्बी हो गयी है व्यथा की कथा,
ह्रदय की करुणा का संगीत दिया है मैंने,
दर्द में भी अनोखा स्वाद आने लगा है मुझे ,
तुम क्या जानो पीड़ा को जीत लिया है मैंने ,
जो पूछते हो मुस्कराता हूँ क्यों हर दम मैं ,
हर हाल में जीवन जीना सीख लिया है मैंने
दर्द की स्याही से गीत लिखा है मैंने ,
वेदना को अपना मीत लिखा है मैंने ,
विनोद भगत

Tuesday 2 April 2013

सूर्य अस्त ,पहाड़ मस्त ,

म्यर पहाडक ज्वानों
सुण लिया यक बात ,
शराब पिबेर नि करो
जवानी अपणी बरबाद ,
शराबक लिजी किलें बदनाम
करौन्छां अपणी भुमी ,
अब बदल दिया भागि ,
पहाडेक पहाडीक परिभाषा ,
सूर्य अस्त ,पहाड़ मस्त ,
कुनी वालोंक मूख बंद कर दिया अब ,
हाथ जोडबेर विनती छु हमरी ,
द्य्खें दिया अब सबुकें ,
बतें दिया अब सबुकें ,
जो यस कौल ,
वीक मुखम जलि लाकड़ लगे दिया ,
पर शराब अब पिन छोड़ दिया ज्वानो

विनोद भगत

Thursday 21 March 2013

मी पहाड़ी छू ,

होई रें , मी पहाड़ी छू ,
पर पहाड़ी बुलान में म्य्कें शरम लागें ,
मी भौतें ठुल ह्वेग्यों नै ,
जब आदिम ठुल ह्वेजां ,
तब तली द्य्खन मुश्किल ह्वेजा,
ईज कें इजा नि कै सकन ,
अरे , लोग म्यर मज़ाक नि करल ,
अब त मी गिटपिट अंग्रेजी बुलानु ,
अब मी ठुल जो भै ,
अपनि भाषा और संस्कृति कै भुलें बेर ,
ठुल हुनक रिवाज़ चल ग्याँ आजकल
विनोद भगत

नानतिन रुनैरि ,

नानतिन रुनैरि ,
ख्यत में जानवार उज्याड खां रई ,
ऊ दूकान में ताश में मस्त हैरी ,
ब्याव कै शराब चै ,
बादम ढाढ़ मारनी ,
हमर गौ में के नि हुन ,
भौतें दुखी छु हौ दाज्यू ,
अब दिल्ली जानु भागि ,
घर बार छोडिबेर ,
दुसरे कि चाकरी करुल ,
अपन घर नि कमें सक ,
जमींदार ह्वेबेर नौकर बन जनु
                                       विनोद भगत

पलायनक दर्द

जो पहाड़ में नि रुन ,
ऊं पलायनेक चिंता करणी ,
पहाडक दर्द पहाड़ में रैबेर ,
द्यखा ,
द्वी दिनक लिजी पहाड़ में ऐबेर
यांक सुन्दरता में मुग्ध हुणोक रिवाज़ ,
अब बंद कर दिया भागि ,
यां रैबेर यांक लोगोंक पीड़ा भोग बेर ,
तब सोचिया ,पलायनक घोर दर्द कस हूं ,
पहाड़ तुमुकें बुलोनि ,
कब आला लौट बेर ,
विनोद भगत

आओ कुछ बात करें ,

आओ कुछ बात करें ,
बाते दुनिया जहान की ,
देश की बातें ,विदेश की बातें ,
घर में क्या हो रहा है ,
कौन चिंता करे ,
अन्धेरा घना हो रहा है ,
अंतस में ,
रौशनी की तलाश कर रहे हम कहाँ ,
मन के अँधेरे दिए से कभी रोशन जहाँ हुआ ,
दुःख से कौन दुखी होता है ,
दुःख तो सामने वाले का सुख देता है ,
हाँ , जानते सभी हैं ,
पर जान कर अनजान बने हुए हम ,
ना जाने क्यों अनजान बने हुए हम ,
यह एक रहस्य है ,
इस रहस्य की खोज करें हम ,
आओ कुछ बात करें
                                      विनोद भगत

Sunday 6 January 2013

हम अब कुत्ते वाले हैं


मुझे आज भी याद है ,
मेरे गाँव के घर में एक गोठ होता था ,
गोठ में रोज़ सुबह जाना मुझे अच्छा लगता था ,
दादी के साथ गोठ में गोबर की महक ,
एक आनंद का अहसास कराती थी ,
दादी जब गायो को दुहती थी ,
बरतन में गिरते दूध की धर का संगीत मन्त्र मुग्ध करता था ,
फिर बरतन के झाग को देखकर मन आनंदित होता था ,
दूध के स्वाद का एक अलग ही नशा था ,
मेरे गाँव के कच्चे घर में चूल्हे पर उबलता था दूध ,
गाँव में जिस घर में गायें नहीं होती वहां दूध पहुचाना अच्छा लगता था ,
हमारे वहां गाये थी , गाँव में हमारा बड़ा मान था ,
आज गाँव नहीं , वो गोठ नहीं , गायें नहीं , कच्चा घर नहीं ,
शहर में एक मकान है , और बड़े बड़े कुत्ते हैं ,
इसलिए हमारा बड़ा मान है ,
सुबह शान से कुत्ते को घुमाते हैं ,
कई लोग हमें इर्ष्या से देखते हैं ,
हमारा दूध वाला भी हमें बाबूजी कहता है ,
दूध वाले के पास तो सिर्फ गाय है ,
हमारे पास बड़े बड़े कुत्ते हैं ,
हम अब कुत्ते वाले हैं ,
समझ में नहीं आता हम बड़े कब थे ,
जब गाय वाले थे ,
या अब, जब कुत्ते वाले हैं ,

विनोद भगत