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Thursday 21 March 2013

मी पहाड़ी छू ,

होई रें , मी पहाड़ी छू ,
पर पहाड़ी बुलान में म्य्कें शरम लागें ,
मी भौतें ठुल ह्वेग्यों नै ,
जब आदिम ठुल ह्वेजां ,
तब तली द्य्खन मुश्किल ह्वेजा,
ईज कें इजा नि कै सकन ,
अरे , लोग म्यर मज़ाक नि करल ,
अब त मी गिटपिट अंग्रेजी बुलानु ,
अब मी ठुल जो भै ,
अपनि भाषा और संस्कृति कै भुलें बेर ,
ठुल हुनक रिवाज़ चल ग्याँ आजकल
विनोद भगत

नानतिन रुनैरि ,

नानतिन रुनैरि ,
ख्यत में जानवार उज्याड खां रई ,
ऊ दूकान में ताश में मस्त हैरी ,
ब्याव कै शराब चै ,
बादम ढाढ़ मारनी ,
हमर गौ में के नि हुन ,
भौतें दुखी छु हौ दाज्यू ,
अब दिल्ली जानु भागि ,
घर बार छोडिबेर ,
दुसरे कि चाकरी करुल ,
अपन घर नि कमें सक ,
जमींदार ह्वेबेर नौकर बन जनु
                                       विनोद भगत

पलायनक दर्द

जो पहाड़ में नि रुन ,
ऊं पलायनेक चिंता करणी ,
पहाडक दर्द पहाड़ में रैबेर ,
द्यखा ,
द्वी दिनक लिजी पहाड़ में ऐबेर
यांक सुन्दरता में मुग्ध हुणोक रिवाज़ ,
अब बंद कर दिया भागि ,
यां रैबेर यांक लोगोंक पीड़ा भोग बेर ,
तब सोचिया ,पलायनक घोर दर्द कस हूं ,
पहाड़ तुमुकें बुलोनि ,
कब आला लौट बेर ,
विनोद भगत

आओ कुछ बात करें ,

आओ कुछ बात करें ,
बाते दुनिया जहान की ,
देश की बातें ,विदेश की बातें ,
घर में क्या हो रहा है ,
कौन चिंता करे ,
अन्धेरा घना हो रहा है ,
अंतस में ,
रौशनी की तलाश कर रहे हम कहाँ ,
मन के अँधेरे दिए से कभी रोशन जहाँ हुआ ,
दुःख से कौन दुखी होता है ,
दुःख तो सामने वाले का सुख देता है ,
हाँ , जानते सभी हैं ,
पर जान कर अनजान बने हुए हम ,
ना जाने क्यों अनजान बने हुए हम ,
यह एक रहस्य है ,
इस रहस्य की खोज करें हम ,
आओ कुछ बात करें
                                      विनोद भगत

Sunday 6 January 2013

हम अब कुत्ते वाले हैं


मुझे आज भी याद है ,
मेरे गाँव के घर में एक गोठ होता था ,
गोठ में रोज़ सुबह जाना मुझे अच्छा लगता था ,
दादी के साथ गोठ में गोबर की महक ,
एक आनंद का अहसास कराती थी ,
दादी जब गायो को दुहती थी ,
बरतन में गिरते दूध की धर का संगीत मन्त्र मुग्ध करता था ,
फिर बरतन के झाग को देखकर मन आनंदित होता था ,
दूध के स्वाद का एक अलग ही नशा था ,
मेरे गाँव के कच्चे घर में चूल्हे पर उबलता था दूध ,
गाँव में जिस घर में गायें नहीं होती वहां दूध पहुचाना अच्छा लगता था ,
हमारे वहां गाये थी , गाँव में हमारा बड़ा मान था ,
आज गाँव नहीं , वो गोठ नहीं , गायें नहीं , कच्चा घर नहीं ,
शहर में एक मकान है , और बड़े बड़े कुत्ते हैं ,
इसलिए हमारा बड़ा मान है ,
सुबह शान से कुत्ते को घुमाते हैं ,
कई लोग हमें इर्ष्या से देखते हैं ,
हमारा दूध वाला भी हमें बाबूजी कहता है ,
दूध वाले के पास तो सिर्फ गाय है ,
हमारे पास बड़े बड़े कुत्ते हैं ,
हम अब कुत्ते वाले हैं ,
समझ में नहीं आता हम बड़े कब थे ,
जब गाय वाले थे ,
या अब, जब कुत्ते वाले हैं ,

विनोद भगत

Saturday 29 December 2012

सुनो सरकारों ,

हम अब चीखेंगे नहीं ,
हम अब तुमसे अपनी सुरक्षा नहीं चाहेंगे ,
अब तुम अपनी सुरक्षा की सोचो ,
अबका आन्दोलन स्वतःस्फूर्त है ,
करोडो की भीड़ अब जाग रही है ,
तुम हमें कुचलते आये हो ,
हमारी भावनाओं से खेलते आये हो ,
बहुत हो चूका खिलवाड़ ,
बंद कर दो यह सब ,
अब किसी दामिनी को,
मौत के आगोश में नहीं जाने देंगे ,
समझ गए हम तुम्हें, तुम दरिंदों के रक्षक हो ,
हमने सौपा हैं तुम्हें यह देश ,
तुम हमारे सेवक थे ,
हुक्मरान बन कर,
अहसानफरामोशी की हद पार कर दी तुमने ,
लाओ लौटा दो हमारा देश हमें ,
हम नहीं चाहते तुमसे अपनी सुरक्षा ,
नहीं चाहते , नहीं चाहते ,नहीं चाहते
पूरा देश तुम पर लानत भेज रहा है ,
तुम छोड़ दो कुर्सियां ,
दरअसल तुम इस लायक नहीं हो ,
जाग चुके हैं अब हम ,
कई दामिनियों को खो चुके हैं हम ,
अब नहीं खोना चाहते ,
तुम्हारे हर आश्वासन झूटे निकले ,
खरा समझे थे तुम्हें खोटे सिक्के निकले
तुम कभी नहीं रोक पाओगे
दामिनियो के साथ अनहोनियों को ,
दरअसल तुम हर अपराध में बराबर के भागीदार हो ,
मुक़दमा तुम पर चले , सजा तुमको मिले ,
तभी रुक पायेंगे यह सिलसिले ,
तुम शर्मिंदा नहीं, शर्मिंदा होने का नाटक करते हो ,
अब हम शर्मिन्दा हैं तुम्हें अपना रखवाला बनाकर ,
भेडियों को बगल में बिठाने वालों से इन्साफ की उम्मीद अब नहीं ,
विनोद भगत

Wednesday 26 December 2012

देह की गंध

देह की गंध को सूंघते है कुछ कुत्ते ,
देह ललचा रही है कुत्तों को ,
यह दरअसल कुत्ते नहीं थे ,
देह ने उन्हें बना दिया कुत्ता ,
कुत्तों की भीड़ बढती जा रही हैं ,
इस भीड़ में ऐसे भी हैं कुत्ते ,
जो सभ्य समाज के मुखौटे भी हैं ,
पर देह ने उन्हें कुत्तों की पंक्ति में खड़ा कर दिया है ,
चेहरे छुपाने की कोशिश नाकाम हो रही है ,
वह पहचान लिए गए हैं ,
अब उनका शुमार भी कुत्तों में होने लगा है ,
अभी कुत्तों की संख्या और बढेगी ,
देह की गंध फैलती जा रही है ,
देह भी उघडती जा रही है ,
उघडती देह को रोकना होगा ,
कुत्ते बढ़ते जा रहे हैं ,
कहीं आदमी ढूढने ना पड़े कुत्तों के बीच से ,
देह को संभालो , कुत्ते कम होंगे

विनोद भगत