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Saturday 10 November 2012

अग्नि परीक्षा ,


त्रेता युग से कलयुग तक ,
सीताओं ने ही दी है अग्नि परीक्षा ,
किसी राम ने अग्नि परीक्षा देने की
जरुरत ही नहीं समझी ,
राम तो अग्नि परीक्षा लेने के लिए हैं ,
अग्नि परीक्षा लेकर भी सीताओं को
वन में भटकना पड़ता है ,
सीता आज भी अग्नि से होकर आती है ,
सीता औरत थी , राम पुरुष थे ,
पुरुष को है अधिकार त्रेता युग से ही ,
अग्नि परीक्षा लेने का ,
अगर आज सीता देती है अग्नि परीक्षा ,
यही तो है हमारी परंपरा ,
हम यही जानते हैं , हम यही पढ़ते हैं ,
आखिर राम हमारे आदर्श हैं ,
मर्यादा हैं , मर्यादा का पालन करेंगे ,
हाँ , हम सीता की अग्नि परीक्षा लेते रहेंगे ,
सदियों तक , युगों तक ,
पर याद रहे हम आगे बढ़ रहे हैं ,
परम्परा पुरानी निभा रहे हैं ,
अपने मतलब के लिए गढ़ते है
शब्दों ग्रंथो के अर्थ ,
हम कभी नहीं देंगे अग्नि परीक्षा ,
पुरुष होने मात्र से हम पवित्र है ,
नारी देवी है ना ,
इसलिए अग्नि परीक्षा देती आयी है ,
विनोद भगत

Friday 26 October 2012

गांधी आ गए स्वप्न में ,

आज गांधी आ गए स्वप्न में ,
चेहरे पर दर्द के भाव थे ,
पीड़ा भरे स्वर में बोले ,
मै रास्ट्रपिता हूँ क्या इसी देश का ,
लाठी हो के भी बिना लाठी के लड़ा ,
क्या इसी देश के लिए ,
मेरे हाथ में नोट देखकर ले लिया ,
तस्वीर देख कर आखों में नमी भर आयी ,
अरे यह क्या ,
हर घोटाले हर भ्रष्टाचार में मेरा भी चित्र पहले आता है ,
एक और आन्दोलन करना होगा ,
मत कहो मुझे रास्ट्रपिता ,
मिटा दो मेरी तस्वीर नोट से ,
जहाँ ,भूख , भ्रष्टाचार , बेरोजगारी पलती हो ,
जहाँ दो वक़्त की रोटी के लिए जिस्म बिकते हों ,
मै वहां का रास्ट्रपिता हूँ ,
जहां देशी भाषा का अपमान होता हो ,
जहाँ रिश्तों का भी मोल लगता हो ,
मेरे नाम का भी सौदा होता हो ,
चश्मा उतार कर आँखों को पोछने लगे बापू ,
रुधे गले से बोले ,
इतना दर्द तो तब नहीं हुआ मुझे जब ,
प्रार्थना सभा में गोली लगी ,
मै सत्य कहता हूँ ,
आज वह दर्द महसूस हुआ है ,
और इतना बड़ा झूठ ,
अब भी कहते हैं ,
मेरे देश के लोग ,
मेरा भारत महान ,
यह कैसी महानता है ,
कई प्रश्नों का जवाब लिए बिना ,
बापू ना जाने कहाँ चले गए ,
मै निरूत्तर , शर्मिन्दा सा ,
नींद से जगा ,
बापू के प्रश्नों का,
जवाब ढूढ़ रहा हूँ

copyright@विनोद भगत

Wednesday 24 October 2012

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
खाने में जब तेरे सर का बाल आता है ,
गुस्सा नाक पर कुछ यूँ चला आता है ,
उफनते दूध में ज्यों उबाल आता है
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ,
ओ मेरी हथिनी , ओ मेरी गजगामिनी ,
यूँ ना चलो मेरे इस सरकारी मकान में ,
तुम्हारे कदमो से यहाँ भूचाल आता है
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ,
शापिंग को चलती हो जब भी तुम साथ ,
तुम्हारे लिए ना जाने क्या क्या मिलता है ,
हमारे आंसुओं के लिए बस रुमाल आता है
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
विनोद भगत(

जड़ों से बिछड़ने की कीमत


कंधे पर बस्ता ,
हाथों में गुलेल ,
लौट कर आते थे ,
पाठशाला से ,
धूल भरी पगडण्डी ,
पैरों में रबर की चप्पलें ,
बेतरतीब बाल ,
किनारे के पेड़ो पर ,
कभी चढ़ जाना ,
चिड़िया के घोसले में ,
ना जाने क्या तलाशना ,
पाठशाला के मास्साब को देख कर ,
छुप जाना , पतली मजबूत डंडियों के हाथों पर निशान,
अठखेली करते मस्ती से घर पहुचना ,
सच कितना आनंद था ,
अब तो अकल्पनीय लगता है यह सब ,
चकाचक चमकते जूते,
झकाझक कपडे ,
गले में टाई,
पीठ पर बस्ते का बोझ ,
बस के भीतर की घुटन ,
मास्साब नहीं , सर का बेगानापन ,
अब पढने में मज़ा नहीं आता ,
फिर कब मिलेगी वो पतली डंडियों की मार ,
पगडंडियों का अपनापन ,
काली डामर की सड़कों से,
जुड़ नहीं पाया कभी नाता ,
अ आ के बदले ए बी से शुरुआत ,
हमें अपनी ही संस्कृति से ,
बिछोह के रास्ते पर ले जाती ,
जड़ों से बिछड़ने की कीमत चुकानी पड़ेगी ,
नहीं हम जड़ों से बिछड़ने की कीमत तो ,
चुका ही रहे हैं ,

कापीराईट @विनोद भगत

घोटाले का पेड़ ,


पैसा पेड़ पर नहीं लगता ,
गलत,
पैसा अब पेड़ पर ही लगता है ,
एक पेड़ होता है ,
घोटाले का पेड़ ,
भारत में विकसित एक नई प्रजाति का वृक्ष ,
बहुत तेजी से बढता है ,
ख़ास तौर से नेताओं के वहां तो वृद्धि दर तीव्र है इसकी ,
प्रजाति के अलग अलग नाम है ,
टू जी , कॉमनवेल्थ , कोलगेट,
जाने कितने नाम है जी ,
हाँ , आम आदमी इस पेड़ को लगा ही नहीं सकता ,
केवल इसके बारे में सुन सकता है ,
वह तो जो उगाता है ,
उसकी भी कीमत नहीं पाता है ,
आम आदमी चमत्कृत हो सकता है ,
यह सुनकर कि घोटाले का पेड़ होता है ,
पैसा पेड़ पर ही लग रहा है ,
आम अमरुद के पेड़ से पैसा कैसा ,
घोटाले का पेड़ लगाओ ,
पैसा ही पैसा पाओ

विनोद भगत

कैसे लिखू.....


कैसे लिखू गीत मैं श्रृंगार के ,
तुम ही बताओं जरा ,
जब जल रहा हो देश ,
भूख और बेबसी के अंगार में ,
क्रंदन हो , रुदन हो , आर्तनाद हो ,
बाला के पायल की झंकार में ,
अमानवीयता का बोलबाला हो ,
मानवता आंसू बहा रही हो कहीं भंगार में ,
कैसे लिखूं मैं गीत श्रृंगार के ,
तुम ही बताओं ज़रा ,
धर्म , जाती के नाम पर विभाजन का विष ,
वोट के लिए खून बहाना ,
बहाना बना देश सेवा का ,
गीत लिखूंगा मैं , पर ठहरो अभी ,
श्रृंगार का नहीं यह समय ,
अभिसार का नहीं यह समय ,
समय है शब्द क्रान्ति का ,
शब्दों ने बदला है इतिहास ,
एक निवेदन छिपा है ,
मेरे इस इनकार में ,
कैसे लिखूं गीत मै श्रृंगार के
copyright@विनोद भगत

तुम कौन हो


अभिलाष लिए प्रीत की ,नयन निहार रहे पथ

अभिसार को आतुर ,प्रिय से मिलने को उन्मत्त

शब्द भी मादक मादक ,प्रेम की पराकाष्ठाएं

प्रेम ग्रन्थ की नायिका लज्जा के आभूषण सजाये

ह्रदय में फूटे प्रेम के अंकुर ,आमंत्रण के स्वर भी मौन है ,

रूप के अनंत सागर में उतराती हिलोरे लेती यह कौन है

चंचल कामिनी सी किस कवि का प्रेम गीत हो

या तुम कान्हा की बांसुरी का मधुर संगीत हो

विनोद भगत