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Wednesday 24 October 2012

प्रतिभा तो घर में ही रहेगी ,


भई वाह ,
क्या खूब लिखते हो ,
आम आदमी की पीड़ा पर कलम चलाते हो ,
पहनावे से तो तुम ऐसे ही लगते हो ,
क्या शानदार रचना लिखते हो ,
मेरी प्रशंसा से क्यों सकुचाते हो ,
तुम्हें लिखना चाहिए , लगातार लिखो,
प्रतिभा छुपी नहीं रहनी चाहिए ,
उसे बाहर निकालो ,
अब उसने भी मुह खोला ,
देखिये बाबूजी ,
प्रतिभा तो घर में ही रहेगी ,
और आप पता नहीं क्या क्या अनाप शनाप बके जा रहे हैं ,
आप लोगो ने हमारी जेबें तक तो खाली करा ली ,
अब घरवाली को भी घर से निकालोगे ,
हाँ , लाओं, मेरे महीने के हिसाब का पर्चा तो दे दो ,
लाला गड़बड़ कर देगा ,
इस पर्चे को देख कर पता नहीं आप क्या बडबडा रहे हो ,
दाल , आटे का बढता भाव और सिलेंडर के दाम लिखे हैं इस पर ,
आप पता नहीं क्या समझ रहे हो ,
पप्पू की फीस और घर के राशन का हिसाब,
यह तो हम रोज़ ही लिखते पढते और समझने की कोशिश में हैं ,
पर अब तक नहीं समझे ,
आप समझे क्या ,

कापीराईट @ विनोद भगत

शब्द


शब्द अमृत हैं कभी , शब्द विष भी होते हैं
शब्द प्राण हैं तो शब्द मृत्यु भी होते हैं
शब्द सम्बन्ध, तो शब्द बिखराव भी होते हैं
शब्द अपने हैं , शब्द पराये भी होते हैं
शब्द ख़ास हैं , शब्द आम भी होते हैं
शब्द मित्र हैं , शब्द शत्रु भी होते हैं
शब्द धरती हैं , शब्द आकाश भी होते हैं
शब्द बनाव हैं , शब्द बिगाड़ भी होते हैं ,
शब्द सत्य हैं , शब्द झूठ भी होते हैं ,
शब्द शब्द हैं , शब्द नि :शब्द भी होते हैं
शब्द बचाव हैं , शब्द नाशवान भी होते हैं ,
शब्द दानव हैं , शब्द भगवान् भी होते हैं ,
शब्द प्राणवान हैं , शब्द मारक भी होते हैं ,
कापीराईट @विनोद भगत

असहाय लोग ,



सुलगते सवालों के बीच ,
धधकते समाज के साथ ,
जी रहे असहाय लोग ,
धुंआ धुंआ होते अरमानों ,
की लाश पर बेजार रोते ,
मरते हुए जी रहे असहाय लोग ,
नित जीने की आशा दिखाते ,
रोज़ पैदा हो रहे मसीहाओं के फुस्स होते ,
आंदोलनों के भंवर में फसे ,
ना जाने कैसे जी रहे असहाय लोग ,
अरबों के वारे न्यारे हो रहे यहाँ ,
बेदर्दों की हमदर्दी के दर्द से कराह रहे ,
बेहद पीड़ा है मन में
फिर भी जी रहे असहाय लोग ,
सुलगते सवालों के बीच ,
धधकते समाज के साथ ,
जी रहे असहाय लोग ,
विनोद भगत

Thursday 7 June 2012

कहानी -----एक और गुलाबो


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Friday 30 March 2012

अच्छा और अहम् का सम्बन्ध ,

जब तुम ,
बहुत अच्छे हो जाते हो ,
तब स्वयं को एक नाजुक
मोड़ पर खड़े पाते हो ,
सच तो यह है ,
बहुत अच्छा हो जाने से ,
तुम पर जिम्मेदारियों का बोझ ,
और बढ जाता है ,
क्योंकि बड़ा आसान है ,
अच्छा बन जाना ,
और उतना ही दुरूह है
अपने अच्छेपन को निभाना ,
बहुत अच्छा हो जाना ,
स्वयं को आदर्श बना लेना ,
शायद एक दिन तुम्हारे भीतर के अहम् ,
जागृत कर दे ,
हो सकता है अहम् सच्चा हो ,
पर अहम् तो अहम् होता है ,
जो एक क्षण में तुम्हारे ,
आदर्शो की पराकाष्टा ,
के दुर्ग को नेस्तनाबूद कर दे ,
और तब अच्छा होने के सुख की अपेक्षा ,
एक भीषण पीड़ा ,
तुम्हारे हिस्से आएगी ,
अच्छा होना और अहम् का सम्बन्ध ,
आग और फूस का है ,
फूस तो तभी तक सुरक्षित है ,
जब तक आग से दूर है ,
इसलिए अपने अच्छेपन में ,
अहम् को मिलाने का प्रयास ,
कितना घातक है .
 

                         विनोद भगत


Tuesday 20 March 2012

संबोधन के उदबोधन

संबोधनों के उदबोधनो को ,
समझ सका है क्या कोई ,
जीवन में बदले संबोधनों के साथ ,
पल पल बदलते जीवन के रहस्य ,
संबोधनों की भाषा को क्या पढ़ पाया कोई,
बदले संबोधन के साथ बढ़ता है जीवन ,
बेटा बेटी के संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
चाचा मामा , मौसी फूफा के नए संबोधनों के साथ ,
कब बदल गया औए समय आगे चला गया ,
नित नए संबोधन पुराने संबोधनों के साथ ,
आगे बढ़ता यह जीवन संबोधनों से थकता नहीं ,
स्मरण आते हैं पुराने सबोधन जो अब भी है ,
पर संबोधित करने वाले कहीं खो जाते हैं ,
नए संबोधनों का आकर्षण तो है ,
पर पुराने संबोधनों की तृष्णा मिटती नहीं कभी ,
संबोधन के मायाजाल में उलझा उलझा सा जीवन ,
सुलझाने की चेष्टा में और भी उलझा है ,
संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
संबोधन की यात्रा अनवरत चलती रहेगी ,
संबोधन के मायाजाल से शायद ही कभी ,
मुक्त हो पाए यह जीवन ,
संबोधन है ,
तभी यह जीवन है ,
यही है संबोधन की भाषा और उसका रहस्य

विनोद भगत

Sunday 18 March 2012

खामोश चाहत

मैं छूना चाहता हूँ ,
तुम्हें ,
कुछ इस तरह कि,
छूने का अहसास ,
भी होने पायें तुम्हें ,
क्योंकि , तुम मेरी खामोश चाहत का ,
मंदिर हो ,
मेरी चाहत का भूले से भी ,
अहसास ना करना ,
क्योंकि ये अहसास ,
तुम्हें चुभन और तड़पन देगा ,
और मैं तुम्हें तडपाना तो नहीं चाहता ,
मैं तो बस चाहते ही रहना ,
चाहता हूँ तुम्हें ,
तुम्हें अपनी चाहत का अहसास ,
दिलाये बिना ,
और मैंने अपनी इसी चाहत को ,
खामोश चाहत ,
का नाम दिया है .

विनोद भगत