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बदल गए है संबंधों के अर्थ , अर्थ के लिए बन रहे है सम्बन्ध , व्यर्थ हो गए सभी सम्बन्ध , अर्थ है तो सम्बन्ध भी है , अर्थ का यह कैसा हु...
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मैं छूना चाहता हूँ , तुम्हें , कुछ इस तरह कि, छूने का अहसास , भी होने पायें तुम्हें , क्योंकि , तुम मेरी खामोश चाहत का , मंदिर...
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मैं नया नया इस शहर में आया था। पहली पोस्टिंग थी। बड़ी मुश्किल से एक कमरा मिला। उसमें भी कई प्रतिबंध नौ बजे बाद नहीं आओगे, लाइट फालतू नहीं जल...
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नमस्कार , मै समाजसेवक , आपकी सेवा के लिए सदा तत्पर , कहिये , आपकी क्या समस्या है , अरे हाँ आराम से , मेरे चमचमाते मार्बल के फर्श से बचन...
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मै स्वप्न खरीदने निकला , एक दिन , स्वप्नों के बाज़ार में , बड़ी भीड़ थी , ठसाठस भरे थे खरीदार , रंगीले स्वप्न , रसीले स्वप...
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आओ समाज को बदलें , आओ लोगो को बदलें , आओ सदाचार सिखाएं , आओ उपदेश दें , आओ सत्य का प्रचार करें , आओ दुनिया को नैतिकता का...
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ज़मीन नफ़रत की , और खाद मिलायी दंगों की , वोट की फसल पाने के लिए , हकीकत यही है सियासत में घुस आये नंगों की , सत्ता मिलते ही एकदम , ...
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eSa u;k u;k bl 'kgj esa vk;k FkkA igyh iksfLVax FkhA cM+h eqf'dy ls ,d dejk feykA mlesa Hkh dbZ izfrca/k ukS cts ckn ugha vkvksxs...
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पेट में उनके आग होती है , जिनके चूल्हे बुझे होते हैं , बुझे चूल्हे की आग पेट से , जब बाहर निकलती है , तब विकराल हो जाती है , चूल्हे...
Friday 30 March 2012
Tuesday 20 March 2012
संबोधन के उदबोधन
संबोधनों के उदबोधनो को ,
समझ सका है क्या कोई ,
जीवन में बदले संबोधनों के साथ ,
पल पल बदलते जीवन के रहस्य ,
संबोधनों की भाषा को क्या पढ़ पाया कोई,
बदले संबोधन के साथ बढ़ता है जीवन ,
बेटा बेटी के संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
चाचा मामा , मौसी फूफा के नए संबोधनों के साथ ,
कब बदल गया औए समय आगे चला गया ,
नित नए संबोधन पुराने संबोधनों के साथ ,
आगे बढ़ता यह जीवन संबोधनों से थकता नहीं ,
स्मरण आते हैं पुराने सबोधन जो अब भी है ,
पर संबोधित करने वाले कहीं खो जाते हैं ,
नए संबोधनों का आकर्षण तो है ,
पर पुराने संबोधनों की तृष्णा मिटती नहीं कभी ,
संबोधन के मायाजाल में उलझा उलझा सा जीवन ,
सुलझाने की चेष्टा में और भी उलझा है ,
संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
संबोधन की यात्रा अनवरत चलती रहेगी ,
संबोधन के मायाजाल से शायद ही कभी ,
मुक्त हो पाए यह जीवन ,
संबोधन है ,
तभी यह जीवन है ,
यही है संबोधन की भाषा और उसका रहस्य
विनोद भगत
समझ सका है क्या कोई ,
जीवन में बदले संबोधनों के साथ ,
पल पल बदलते जीवन के रहस्य ,
संबोधनों की भाषा को क्या पढ़ पाया कोई,
बदले संबोधन के साथ बढ़ता है जीवन ,
बेटा बेटी के संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
चाचा मामा , मौसी फूफा के नए संबोधनों के साथ ,
कब बदल गया औए समय आगे चला गया ,
नित नए संबोधन पुराने संबोधनों के साथ ,
आगे बढ़ता यह जीवन संबोधनों से थकता नहीं ,
स्मरण आते हैं पुराने सबोधन जो अब भी है ,
पर संबोधित करने वाले कहीं खो जाते हैं ,
नए संबोधनों का आकर्षण तो है ,
पर पुराने संबोधनों की तृष्णा मिटती नहीं कभी ,
संबोधन के मायाजाल में उलझा उलझा सा जीवन ,
सुलझाने की चेष्टा में और भी उलझा है ,
संबोधन के साथ प्रारम्भ हुआ जीवन ,
संबोधन की यात्रा अनवरत चलती रहेगी ,
संबोधन के मायाजाल से शायद ही कभी ,
मुक्त हो पाए यह जीवन ,
संबोधन है ,
तभी यह जीवन है ,
यही है संबोधन की भाषा और उसका रहस्य
विनोद भगत
Sunday 18 March 2012
खामोश चाहत
मैं छूना चाहता हूँ ,
तुम्हें ,
कुछ इस तरह कि,
छूने का अहसास ,
भी होने पायें तुम्हें ,
क्योंकि , तुम मेरी खामोश चाहत का ,
मंदिर हो ,
मेरी चाहत का भूले से भी ,
अहसास ना करना ,
क्योंकि ये अहसास ,
तुम्हें चुभन और तड़पन देगा ,
और मैं तुम्हें तडपाना तो नहीं चाहता ,
मैं तो बस चाहते ही रहना ,
चाहता हूँ तुम्हें ,
तुम्हें अपनी चाहत का अहसास ,
दिलाये बिना ,
और मैंने अपनी इसी चाहत को ,
खामोश चाहत ,
का नाम दिया है .
विनोद भगत
क्योंकि ये अहसास ,
तुम्हें चुभन और तड़पन देगा ,
और मैं तुम्हें तडपाना तो नहीं चाहता ,
मैं तो बस चाहते ही रहना ,
चाहता हूँ तुम्हें ,
तुम्हें अपनी चाहत का अहसास ,
दिलाये बिना ,
और मैंने अपनी इसी चाहत को ,
खामोश चाहत ,
का नाम दिया है .
विनोद भगत
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