सब
कुछ बिकने लगा ,
इंसान
की निष्ठां भी ,
बाज़ार
में बिक रही ,
खरीदार
तैयार हैं ,
समाज
है बाज़ार हैं ,
शब्द
"बाजारू " बड़ा ही घिनौना है ,
पर
क्या होगा इस समाज का ,
हर कोई बाज़ार में बैठा ,
बिकने
को लालायित है ,
नेता
अभिनेता सभी बिक रहे ,
जो
आदर्श थे वह भी बाज़ार में जा बैठे ,
सत्य
भी बिक गया ,
झूठ
भी अब तो कीमती है ,
पाप
बिक रहा ,
पुण्य
का भी मोलभाव हो रहा ,
ये
बाजारवाद की पराकाष्टा है ,
इस
बाज़ार में भगवान् भी हाय बिक गया ,
कौन
दिलाएगा इस बाजारू संस्कृति से मुक्ति ,
एकमात्र
"कलम " पर था भरोसा ,
पर
अफ़सोस वह भी बिकती सी नजर आ रही है ,
विनोद भगत
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