मर्यादा
टूट रही ,
लिहाज
की सीमायें लाँघ दी गयी है ,
अब
हम मानव सिर्फ कहलाते है ,
मानव
सा कौन सा कर्म हो रहा ,
जिसे
गुरु कहते थे वह अब ,
"गुरु
" हो गया है ,
और
चेला दो नहीं चार कदम आगे हो गया है ,
नेतिकता
कही सुबक सुबक रो रही है ,
धर्म
की दुहाई देकर अधर्म का खेल हो रहा ,
राजनीति
के नाम पर नीति हो रही कलंकित ,
मनोरंजन
के नाम पर मनो को रंज हो रहा ,
यह
कैसा देश बना दिया ,
देशभक्त
बनने का दिखावा कर रहे ,
वही
देश के द्रोही बन रहे ,
चारों
तरफ कलंक और कदाचार का कीचड ,
भूल
कर भी पत्थर मत मार देना ,
अंजाम
भुगतोगे ,
छीटें
कीचड के ,
तुम्हे
भी तो उन्ही के रंग में रंग दें
विनोद
भगत
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