टुकड़े
कितने जरुरी है ,
रोटी
का हो या जमीन का ,
और
कडकती ठण्ड में ,
एक
अदद धूप का टुकड़ा ,
जीवन
की निशानी होता है ,
पर
टुकडो में बटना किसी को स्वीकार नहीं ,
फिर
भी हम रोटी और जमीन के टुकड़े के लिए ,
टुकड़ों
में बंट रहे है ,
एक
टुकडा रोटी देने को हम तैयार नहीं ,
पर
ह्रदय के टुकड़े करने में हमे महारथ हासिल है ,
टुकडा
टुकडा होते हम ,
नहीं
समझ पा रहे अभी भी हम ,
और
कितने टुकड़ों में बटेंगे हम ,
टुकडा
होने का यह खेल जारी रहेगा कब तक ,
कब
सोचेंगे हम ,
नहीं
जानते ,
अभी तो टुकडा टुकडा होने में व्यस्त है
विनोद
भगत
समाज की सच्चाई को प्रदर्शित करती पंक्तियाँ | बहुत सुन्दर |
ReplyDeleteउम्दा विनोद जी सुन्दर भावों से सजाया है आपने आपनी प्रस्तुति को
ReplyDelete